________________
७० ] प्रबन्धचिन्तामणि
[तृतीय प्रकाश [शांत करते हुए ] यों कहा- स्वामिन् ! यदि मेरे देनेसे तुम्हारा पुण्य चला जाता है तो मैं उसका तथा अन्य पुण्यवानोंका पुण्य इसी तरह आपको भी दे देता हूँ। और असलमें तो बात यह थी कि जिस-किसी भी उपायसे शत्रसेनाको स्वदेशमें प्रवेश करनेसे रोकनी जरूर थी।' ऐसा कह कर उसने नृपतिका अनुनय किया। इसके बाद इसी अमर्षवश उसने मा ल व म ण्ड ल पर चढ़ाई करनेकी इच्छा की। स ह स लिंग [ सरोवरादि ] धर्मस्थानके कार्यका जो आरंभ किया गया था उसकी देखरेखका काम मंत्रियों और शिल्पियों (कारीगरों) को सौंपा। बड़ी शीघ्रताके साथ उसका काम चलने पर राजाने युद्धके लिये प्रयाण किया । वहाँ जय-जयकारके साथ बारह वर्ष तक युद्ध होता रहा । फिर भी जब किसी प्रकार धारा [ नगरी ] का किला नहीं टूटता दिखाई दिया तो [ एक दिन राजाने यह ] प्रतिज्ञा की कि धारा के किलेको तोड़े बिना आज अन्न ही न खाऊँगा । सायंकाल हो जाने पर भी ऐसा करने में असमर्थ होनेके कारण, सचिवोंने आटेकी बनावटी धारा बनवा कर और वहाँ पर पर मार राजपुत्रको अपने सैनिकों द्वारा मरवा कर, उस प्रतिज्ञाका निर्वाह कराया । इस प्रकार प्रपञ्चसे राजाने प्रतिज्ञा तो पूरी की, लेकिन कार्यमें सफलता प्राप्त न होनेसे वापस लौटनेकी अपनी इच्छा मुनाल नामक मंत्रीको बताई। उसने अपने गुप्तचरोंको तीन रास्ते, चौराहे और चबूतरे इत्यादिक स्थानों पर भेज कर, धारा के किलेके भंग होनेकी बातें जाननी चाहीं । लोगोंके परस्पर वार्तालाप करते हुए, धारा के रहने वाले किसी [ जानकार ] पुरुषने कहा कि — दक्षिण दिशाके दरवाजेकी ओरसे शत्रुसेना हमला करे तब ही कहीं धारा के किलेका तोड़ना सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं।' यह बात सुन कर [उन गुप्त चर लोगोंने] मंत्रीको सूचित किया। उसने इस वृत्तान्तको गुप्तरूपसे राजाको विज्ञापित किया। राजाने भी यह वृत्तान्त जान कर उधर ही से सेनाके साथ आक्रमण किया। तो भी दुर्गको बड़ा दुर्गम समझ कर राजा स्वयं ' यशः प ट ह' नामक अपने प्रधान बलवान् पट्ट हाथी पर चढ़ा । उसके पीछे सा म ल नामक महावत खड़ा रहा । त्रिपोलिया दरवाजेके दोनों किवाडौंको, जिनके अंदर लोहेकी जबर्दस्त अर्गला लगी हुई थी, तोडनेके लिये उस हाथांने अपना सर्व सामर्थ्य खर्च कर दिया। किवाड तो टूट गये लेकिन हाथीकी हड्डी भी साथमें टूट गई। महावतने सिद्ध राज को उस परसे उतारा और ज्यों ही वह स्वयं उस पर चढ़नेको उद्यत हुआ त्यों ही वह हाथी पृथ्वी पर गिर पड़ा । वह हाथी बड़ा वीर होनेके कारण मर कर अपने यशसे धवल हो कर व ड स र ग्राममें य शोध व ल नाम ग्रहण करके बिनायक रूपसे अवतीर्ण हुआ।
१३५. सिद्धिके स्तनरूप शैलके तटदेशके आघातके कारण मानों जिसका दूसरा दांत टूट गया है, वह
एक दाँत धारण करनेवाला गजवदन ( विनायक ) तुम्हारा श्रेय करे ।
इस तरह उसकी स्तुति [की जाती है । इस प्रकार दुर्गका भंग करने पर युद्ध में आरूढ़ य शो वर्मा को [ सन्धि-विग्रहादि ] ६ गुणोंसे बाँध कर, उस जगह पर अपनी जगन्मान्य आज्ञाकी उद्घोषणा करवाई और य शोवर्म [ राजाको बन्दि बना कर अपने साथमें ले 1 पत्तन में आया ।
[ तब कवियोंने ऐसी स्तुतियां पढ़ीं-] [८९] अरे क्षत्रियो, ऐसा न समझो कि इस सिद्ध राज के कृपाणने अनेक राजाओंकी सेनाका नाश
किया है इसलिये अब इसकी धार कुंठित हो गई है। नहीं नहीं; प्रबल प्रतापरूप अग्निके ऊपर आरूढ हो कर यह सम्प्राप्तधार (=१ जिसने धारा नगरीको प्राप्त किया है, २ जिसने तेज़दार
धार पाई है) कृपाण चिरकाल तक मा ल व रमणियोंका अश्रुजल पी कर और अधिक तेज होगा [९०] हे महाराज ! आपने शत्रुओंके विजय करनेमें दूधकी धाराके समान जो उज्ज्वल यश प्राप्त
किया है उसके कारण आपकी तलवार तो उज्ज्वल ही थी पर इन मा ल व - नारियोंके काजल [मिश्रित अश्रुजल ] पी पी कर, इसने, उसकी महिमा सूचक, यह कालिमा धारण कर ली है।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org