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प्रकरण ९१-९६ ] मयणल्लादेवीका सोमेश्वरकी यात्रा करना
[६९ लाखकी आमदनी मालूम दी। राजाने उस करके पट्टेको फाड कर, माताके कल्याणार्थ उस करको उठा दिया
और अंजलीमें जल ले कर उसकी प्रतिज्ञा की । इसके बाद उस ( म य ण ल्ला दे वी ) ने सो मे श्व र के पास जा कर उस सुवर्णसे पूजा की; तथा तुलापुरुषदान, गजदान आदि अनेक महादान दिये । रातको वह ऐसे गर्वके साथ कि 'मेरे समान संसारमें न कोई हुई और न कोई होने वाली है' गाढ़ी नींदमें सो गई । तपस्वी वेष धारण करके उसी देव ( सो मे श्वर ) ने [ स्वप्नमें प्रत्यक्ष हो कर के ] कहा-' यहीं मेरे देवालयमें एक कार्पटिक स्त्री यात्राके लिये आई है । तुम्हें उसका पुण्य माँगना चाहिये। ऐसा आदेश करके जब वह देवता अन्तर्धान हो गये तो फिर प्रातःकाल ] राजपुरुषोंसे खोज करा कर उस स्त्रीको उसने बुलवाया। उसके पुण्यको माँगने पर भी वह किसी तरह जब देनेको तत्पर न हुई तो उससे पूछा कि 'यात्रामें तुमने क्या [द्रव्य ] व्यय किया है!' तो वह बोली कि मैं भीख भाँग माँग कर १०० योजन दूरसे, कई देश पार करके, कलके दिन यहाँ देवालयमें आई हूँ। तीर्थोपवास करके, पारणामें किसी सुकृतिके यहाँसे, मैं निर्भागिनी थोडासा पिण्याक (खली) प्राप्त करके, उसके एक टुकड़ेसे मैंने श्री सोमेश्वर की पूजा की, एक टुकड़ा अतिथिको दिया
और एक टुकड़ा स्वयं खा कर उपवासका पारणा किया। आप तो बड़ी पुण्यवती हैं-जिसके पिता, भाई, पति और पुत्र राजा हैं । आपने यह बा हु लोड कर, जो ७२ लाखका था, उठवा दिया है । सवा करोड़ मूल्यकी सामग्रीसे देवकी पूजा कर अगणित पुण्य अर्जन किया है। आप मेरे इस क्षुद्र पुण्य पर क्यों लोभ करती हैं ! और यदि क्रोध न करें तो कुछ कहूँ। असलमें तुम्हारे पुण्यसे मेरा पुण्य अधिक है । क्यों कि
१३२. संपत्ति होने पर नियम करना, शक्ति रहते सहन करना, यौवनावस्थामें व्रत लेना और दरिद्रावस्थामें दान देना, यह सब बहुत थोडा होने पर भी अधिक पुण्यका कारण होता है ।
इस प्रकारके युक्ति-युक्त वाक्यसे उसने उसके गर्वका निराकरण किया ।
९५) इसके बाद, सिद्ध रा ज जब समुद्रके किनारे खडा हो कर उसको देख रहा था तब एक चारणने आ कर इस प्रकार स्तुति की
१३३. हे चक्रवर्ती नाथ ! तुम्हारे चित्तको तो कौन जानता है, लेकिन मैं समझता हूँ कि हे कर्ण पुत्र आप शीघ्र ही लंका लेना चाहते हैं और उसीके लिये यहाँ खडे खडे मार्ग देख रहे हैं।
[ तब एक ] दूसरे चारणने कहा१३४. हे जे सल (जय सिंह )! यह समुद्र दौड कर तुम्हारे पैर धो रहा है; इसलिये कि तुमने और तो सब राजाओंको जीत लिया है और सिर्फ एक मेरा बि भी ष ण राजा बाकी रह गया है; सो उसको छोड़ दीजिए।
सिद्धराजका मालवाके साथ संघर्ष । ९६) राजा जब इस प्रकार यात्रामें व्यस्त था, उसी समय मा ल वा का छलान्वेषी राजा यशोवर्मा गूर्ज र देश में [ आ कर ] उपद्रव करने लगा। सान्तू मंत्री ने पूछा कि 'भलाँ, आप कैसे इस चढाईसे निवृत्त हो सकते हैं ?' उसने कहा कि ' यदि तुम अपने स्वामीकी सो मे श्व र देव की यात्राका पुण्य मुझे दे दो तो।' ऐसा कहने पर उस मंत्रीने उसके चरण धो कर, उस पुण्यदानके निदानरूप जलको चुल्लूमें ले कर उसके हाथ पर छोड़ दिया और ऐसा करके उसको [ गू र्ज र देश से ] वापस लौटाया। [यात्रासे लौट कर ] श्री सिद्ध राज जब नगरमें आया और मंत्री और मा ल व नरेशके उस वृत्तान्तको सुना तो वह बड़ा क्रुद्ध हुआ। मंत्रीने उससे
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