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________________ ६८] प्रबन्धचिन्तामणि [ तृतीय प्रकाश क्के घर भोजन बनवा कर उसे खिलाया और अपने घरके नीचेके तल्लेमें खाट बिछवा कर रहनेकी जगह दी। कालक्रमसे उसके पास खूब सम्पत्ति हो गई। फिर उसने अपना निजका ईंटोका घर बनवानेकी इच्छा की। उसकी नींव खोदते समय [जमीनमेंसे ] अपरिमित धन निकल आया। वह उस स्त्रीको बुला कर उस निधिको जब देने लगा तो उसने अस्वीकार किया। उसी निधिके प्रभावसे, वहाँ पर, वह उ द य न मंत्रीके नामसे प्रसिद्ध हुआ । ९१) [ फिर उस धनसे ] उसने क र्णा व ती में अतीत, भविष्य और वर्तमानके चौवीस चौवीस जिनोंसे सुशोभित श्री उ द य न विहार [ नामक मन्दिर ] बनवाया । ९२) उसको भिन्न भिन्न मातासे उत्पन्न ऐसे चार पुत्र हुए, जिनके नाम चा ह ड, आम्ब ड, बाह ड और सो ला क इस प्रकार थे। सान्तू मंत्रीका प्रबन्ध ९३) एक दूसरे अवसर पर, सान्तू नामक महामंत्री हाथी पर चढ़ कर राजपाटिकामें जा कर लौटा और अपनी ही बनवाई हुई सान्तू व स हि का में देववन्दन करनेकी इच्छासे उसमें प्रवेश करते हुए, उसने, किसी चैत्यवासी श्वेतांबर यतिको, वार-वेश्याके कंधे पर हाथ रखे हुए देखा । मंत्रीने हाथीसे उतर कर उत्तरासङ्ग करके, पञ्चाङ्ग प्रणामके द्वारा, गौ त म मुनिकी भाँति, उसको प्रणाम किया । वहाँ पर क्षणभर ठहर कर, फिर उसे प्रणाम करके, वह चला गया । वह यति तो लाजके मारे मुँह नीचा किये पातालमें गड़ा-सा जाने लगा; और फिर तत्काल सब छोड़-छाड़ कर ' मल धारी श्री हे म सूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण करके, संवेग रससे पूर्ण हो शत्रुञ्ज य पर्वत पर चला गया और बारह वर्षतक वहाँ तप किया। किसी समय वही मंत्री श्री शत्रुञ्ज य पर देवचरणोंकी यात्राके लिये गया तब वहाँ उस मुनिको अपरिचितकी नाई देख कर, उसके चरित्रसे मनमें चकित हो कर, उसका गुरुकुल आदि पूछा। ' असलमें तो आप ही गुरु हैं'-उसके ऐसा कहने पर कान बंद करके मंत्रीने कहा- नहीं, नहीं, ऐसा मत कहिये ।' असल बात न जाननेके कारण ऐसा कहते हुए उस मंत्रीसे उसने कहा १३१. चाहे गृही हो चाहे त्यागी, जो जिसको शुद्ध धर्ममें स्थापित करता है वही उसका धर्मगुरु होता है। इस प्रकार उसे मूल वृत्तान्त बता कर उसकी धर्ममें दृढ़ता निर्माण की। इस प्रकार यह मन्त्री सान्तूकी दृढ़धर्मताका प्रबंध समाप्त हुआ। मयणल्लादेवीका सोमेश्वरकी यात्रा करना। ९४) उसके बाद, श्री म य ण ल्ला दे वी ने, अपने पूर्व जन्मकी स्मृतिके ज्ञानसे जाना हुआ, पूर्वभवका वह वृत्तांत, जब सिद्ध राज से कह बताया, तो वह श्री सो म नाथ के योग्य सवा करोड़ मूल्यकी सुवर्णमयी पूजासामग्री साथ ले कर यात्राके लिये माताके साथ चला । वह इस प्रकार, बा हु लोड़ नगर पहुँची, तो वहां पर, पश्चकुल-कर वसूल करने वाले राजपुरुष - के द्वारा, कापडी आदि प्रवासी भिक्षुक गण, कर देनेके लिये पीडित किये जा कर, उनकी अवहेलना की गई। वे आँखोंमें, आंसू भर कर पीछे लौटने लगे। म य ण ला देवी ने जो यह बनाव देखा तो उसके दर्पणसे [ स्वच्छ ] हृदयमें उनकी पीड़ा संक्रान्त हो गई। वह भी [ उनके साथ यात्रा किये विना ] पीछे लौटने लगी। तब सिद्ध रा ज ने बीच में पड कर कहा-' स्वामिनि ! आपका यह कैसा संभ्रम हे ! आप क्यों पीछे लौट रहीं हैं !' राजाके ऐसा कहने पर [ उसने कहा-] जभी यह कर सर्वथा बन्द कर दिया जायगा तभी मैं सो मे श्व र को प्रणाम करूँगी, अन्यथा नहीं। और तो क्या, इसके बाद भोजन और पानका भी मुझे नियम है।' यह सुन कर राजाने पञ्चकुलको बुलाया और उसका हिसाब पूछा, तो उसमें ७२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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