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प्रकरण ८५-९० ]
उदयन मंत्रीका प्रबन्ध
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करते थे-अपने महलमें बुलाया। शरीरमें बनावटी रोग बतला कर नाडी दिखाई । वैद्यने उपयुक्त पथ्यका सेवन करना बतलाया तो [ उस म द न पाल ने कहा ] 'वही तो नहीं है।' और इसीलिये मैंने तुम्हें बुलाया है। [किसी और प्रकारका ] पथ्य दे कर भूख शान्त करनेके लिये तुम्हें नहीं [ बुलाया है ] । इसलिये बत्तीस हजार [ रुपये ] हाजर करो, यह कह कर उसे बंदी कर लिया। उसने वह सब वैसा करके (अर्थात् उसका मांगा हुआ द्रव्य दे-दिला कर ) फिर इस तरहका अभिग्रह (नियम) ग्रहण किया कि-'मैं इसके बाद प्रतीकारके लिये राजाका घर छोड़ कर अन्यत्र कहीं नहीं जाऊँगा' । इसके बाद परम आतुर रोगियोंका प्रश्रवण (पैशाब ) मात्र देख कर ही वह उनका निदान और चिकित्सा करता रहा। [ एक समय ] किसी मायावीने, कल्पित रोगकी चिकित्सा कौशलको जाननेकी इच्छासे एक बैलका मूत्र दिखाया । उसने अच्छी तरह उसे देख कर सिर हिलाते हुए कहा- यह बैल बहुत खानेके कारण फूल गया है । इसलिये शीघ्र ही इसे तेलकी नाली दो । नहीं तो मर जायगा।' ऐसा कह कर उसने उसके चित्तमें चमत्कार उत्पन्न किया।
एक वार राजाने अपनी गर्दनकी पीडाका प्रतीकार पूछा । उसके यह कहने पर कि, दो पल भर कस्तूरीको भिगो कर लेप करनेसे रोग शान्त होगा, वैसा ही किया गया । गर्दन ठीक हो गई। फिर राजाकी पालकी ढोनेवाले किसी गरीब मनुष्यने ग्रीवा ( गर्दन ) की पीड़ाकी दवा पूछी । उससे कहा कि 'करीरकी जड़ घिस कर उसके रसमें उसी जगहकी मिट्टी मिला कर उसका लेप करो।' तब राजाने पूछा कि यह क्या बात है ! । इस पर उसने बताया कि आयुर्वेदज्ञ लोग देश, काल, बल, शरीर और प्रकृति देख कर चिकित्सा किया करते हैं।'
एक बार, कुछ धूर्त एक मत हो कर दो दोकी संख्यामें पृथक् पृथक् हो गये। पहले दोने बाजारके रास्तेमें पूछा कि 'क्या बात है कि आप शरीरसे खिन्न दिखाई देते हैं।' दूसरे दोने श्री मु आ ल स्वामी प्रासादके सोपान पर [ वही बात ] पूछी । तीसरे दोने राजद्वार पर और चौथे दोने द्वारतोरण पर वही बात पूछी । इस प्रकार वार वार पूछनेसे उसे [ अपने स्वास्थ्यके विषयमें बड़ी ] शंका उत्पन्न हो गई और तत्काल ही उसे माहेन्द्र ज्वर हो गया । [ और उससे ] तेरहवें दिन वह वैद्य मर गया।
इस प्रकार यह ठ० लीला वैद्यका प्रबंध समाप्त हुआ।
८९) इसके बाद, सान्तू नामक मंत्री, कालकी नाई अन्यायी उस म द न पाल को मारने की इच्छासे किसी समय, कर्ण के पुत्र-कुमार ज य सिंह-को हाथी पर चढ़ा कर राजपाटिकाके बहाने उसके घर ले गया और वहाँ [ कुछ तूफान मचवा कर ] वीरों के हाथसे उसको मरवा डाला ।
उदयन मंत्रीका प्रबन्ध । ९०) इधर, म रु दे श का रहनेवाला कोई श्री मा ल वं शी य वणिक् जिसका नाम 'उदा' था, अच्छा घी खरीदनेके लिये, वर्षाकालकी अँधेरी रातमें कहीं जा रहा था । वहाँ जंगलमें उसने देखा कि कुछ कर्मचारी किसी खेतमें एक क्यारीसे दूसरी क्यारीमें जल भर रहे हैं। उनसे पूछा कि तुम लोग कौन हो । उन्होंने जब कहा कि 'हम फलाँ आदमीके कामुक (हितचिन्तक) है' तो उसने पूछा कि मेरे भी कहीं है ! । इस पर उनके यह बताने पर कि 'कर्णा व ती में हैं ' वह सकुटुंब [ उस स्थानको छोड़ कर ] वहाँ (क र्णा व ती) पहुँचा । वहाँ पर वा य टी य जिन मन्दिरमें [ देवदर्शन करते हुए उसको ] किसी ' ला छि' नामक एक छिम्पिका श्राविकाने, उसे साधर्मिक जान कर प्रणाम किया। उसके यह पूछने पर कि आप किसके अतिथि हैं ? [उदा ने कहा कि] 'मैं विदेशी हूँ, आप ही का अतिथि समझिए ! ' यह सुन कर उसने उसको अपने साथ ले जा कर, किसी वणि
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