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प्रबन्धचिन्तामणि
[तृतीय प्रकाश
उसके पास भेजा। राजाने यह समझ कर कि यह वही स्त्री है, उसके साथ सप्रेम उपभोग किया और उससे उसको गर्भाधान हो गया। फिर उसने सङ्केत बतानेके लिये राजाके हाथसे उसकी नामाङ्कित अँगूठी ले ली और अपनी अँगुलिमें पहन ली । बादमें प्रातःकाल, उस दुर्विलासके कारण राजाको ग्लानि हुई और उस रहस्यमय वास्तविक वृत्तान्तको न जानते हुए उसने प्राणत्याग करनेका संकल्प किया । स्मृतिशास्त्रियोंके, ताँबेकी बनी हुई प्रतप्त मूर्तिके साथ आलिंगन करनेसे इसका प्रायश्चित हो जायगा, ऐसा विधान बतलानेसे राजाने उसी प्रकार करनेकी इच्छा की । तब उस मंत्रीने वह सारी बात जैसी बनी थी वैसी कह सुनाई।
(इस जगह P प्रतिमें निम्नलिखित श्लोक मिलते हैं -) [ ८५] [ अपने ] भारी पराक्रमके कारण तो वह पिता [ भी म ] के समान हुआ । और रमणीय
आकारके कारण वह राजा अपने पुत्र [ ज य सिंह-सिद्ध राज ] के समान हुआ। [८६ ] विना कर्ण ( राजाके ) के स्त्री-नेत्रोंको कहीं भी रति (प्रीति ) नहीं प्राप्त होती थी इसी
लिये उन ( स्त्री-नेत्रों ) की प्रवृत्ति कर्ण ( कान ) तक हुई। ( अर्थात् इसी लिये मानों स्त्रियों के
नेत्र कानतक लंबे होने लगे।) [ ८७ ] मानों कर्ण और अर्जुन के उस पुराने वैरको स्मरण करते हुए ही, उस कर्ण ने [अपने ] अर्जुन ( स्वेत ) यशको देशान्तरमें पहुँचा दिया।
सिद्धराज जयसिंहका जन्म । [ ८८ ] जिस प्रकार द श र थ के पुत्र मनोहर गुणोंसे युक्त श्री राम हुए उसी प्रकार इस [ कर्ण ] ___ का जगद्विजयी ऐसा ज य सिंह नामक पुत्र हुआ।
८५) अच्छे लग्न ( मुहूर्त ) में पैदा हुए उस पुत्रका नाम राजाने 'जय सिंह' ऐसा रखा । वह बालक जब तीन वर्षका था उसी समय समवयस्क कुमारोंके साथ खेलता हुआ सिंहासनपर आरूढ हो गया। इस बातको व्यवहार विरुद्ध समझ कर राजाने ज्योतिषियोंसे पूछा। उन्होंने निवेदन किया कि यह [बड़ा] आभ्युदयिक लग्न है । राजाने उसी समय उस पुत्रका राज्याभिषेक करा दिया।
८६) सं० ११५० पौष वदी ३ शनिवार, श्रवण नक्षत्र, वृष लग्नमें, श्री सिद्ध रा ज का पट्टाभिषेक हुआ।
८७ ) राजा स्वयं, आशा पल्ली नामक प्रामके रहनेवाले आशा नामक भीलके ऊपर युद्धके लिये चढाई करके गया । भैरव देवीका शुभ शकुन होने पर, वहाँ को छ र ब्बा नामक देवीका मंदिर बनवाया [ और वहीं शिबिर-निवेश किया ] फिर, एक लाख खड्ग के अधिपति उस भीलको जीत कर और उस प्रासादमें जयन्ती देवीकी प्रतिष्ठा करके, कर्णेश्वर देवताका मन्दिर और कर्ण सा गर तालाबसे सुशोभित की व ती पुरीकी स्थापना कर खुद वहीं राज्य करने लगा। उस राजाने पत्त न में श्री कर्ण मे रु नामक प्रासाद बनवाया।
सं० ११२० चैत्र सुदि ७ से ले कर, सं० ११५० पौष वदी २ तक, २९ वर्ष ८ मास २१ दिन इस राजाने राज्य किया।
सिद्धराजका राज्यवर्णन-लीला वैद्यका प्रबन्ध । ८८ ) इसके बाद, जब श्री कर्ण का स्वर्गवास हो गया तो श्रीमती उ द य म ति देवीका भाई मदन पाल असमंजस भावसे वर्तने लगा। उसने ली ला नामक वैद्यको,- जिसने देवतासे वरप्रसाद पाया था
और तात्कालिक नागरिक लोग इतहृदय हो कर जिसकी काञ्चन-दान आदि पूजा द्वारा अभ्यर्चना किया Jain Education International
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