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प्रकरण ७९-८४ ] कर्णराजा और मयणल्लादेवीका वृत्तान्त
[ ६५ ८०) इसने पत्तन में श्री भीमेश्वर देव और भट्टारिका ( पटरानी ) भी रु आणी के [ नामसे शिवके ] प्रासाद बनवाये । संवत् १०७७ से लेकर ४२ वर्ष १० मास ९ दिन राज्य किया । ( B. P प्रतियोंमें - संवत् १०६५ से आरंभ कर ४२ वर्ष राज्य किया ।)
कर्णराजा और मयणल्लादेवीका वृत्तान्त । ८१) उसकी रानीने जिसका नाम उदय म ति था [ और जो न रवा ह न खंगार की लड़की थी ], पत्त न में एक बहुत बडी नयी वापी ( बावडी ) बनवाई, जो स ह स लिंग सरोवरसे भी कहीं अधिक आकर्षक थी।
८२) इसके बाद, सं० ११२० चैत्र वदि ७ सोमवार, हस्त नक्षत्र, मीन लग्नमें श्री कर्णदेव का राज्याभिषेक हुआ।
८३) इधर, शुभ के शी नामक कर्नाट देश का राजा घोड़ेसे [ जिसको अपने काबूमें न रख सकनेके कारण ] उडाया जा कर किसी घने जंगलमें जा पडा । वहाँ पत्र फलसे भरे किसी वृक्षकी छायाका उसने आश्रय लिया। उसके पास ही दावाग्नि लगी। जिस वृक्षने [ अपनी छायामें ] विश्राम दे कर उपकार किया था उसे, कृतज्ञताके कारण छोड कर चले जानेकी उसकी इच्छा न हुई । और इसलिये, उसीके साथ दावानलमें उसने अपने प्राणोंकी आहुति दे दी। फिर इसके बाद, मंत्रियोंने उसके पुत्र ज य के शी को राज-पद पर अभिषिक्त किया । क्रमशः उसके एक म य ण ल्ला देवी नामकी पुत्री पैदा हुई । शिवभक्तोंने उसके सामने [ किसी समय] ज्यों ही सो मे श्वर का नाम लिया त्यों ही उसको अपने पूर्व जन्मका स्मरण हो आया कि- ' मैं पूर्व जन्ममें ब्राह्मणी थी। बारहों मासके उपवास करके प्रत्येकके उद्यापनके समय बारह वस्तुओंका दान किया करती थी। [इसके बाद ] श्री सो मे श्व र को प्रणाम करनेके लिये प्रस्थान करके बाहु लोड नगर में आई । वहाँपर कर देनेमें असमर्थ हो [ आगे ] न जा सकी । उसीके शोकमें, यह प्रतिज्ञा करके कि ' भविष्य जन्ममें मैं इस करको मिटादेने वाली बनूं '-मर कर इस कुल में पैदा हुई । ऐसी यह उसे पूर्व जन्मकी स्मृति हुई । इसके अनुसार बाहु लोड के करको हटा देनेकी इच्छासे उसने गूर्जर नरेश जैसे श्रेष्ठ वरकी कामना करके अपने पितासे यह सब वृत्तांत कहा। ज य के शी राजाने यह व्यतिकर जान कर अपने प्रधान पुरुषोंके द्वारा, श्री कर्ण से अपनी पुत्री श्री म य ण ल्ला देवी को [ पत्नीरूपमें ग्रहण करनेकी ] स्वीकृति माँगी। श्री कर्ण ने जब उसकी कुरूपताकी बात सुनी तो वह उदासीन हो गया । पर उस कन्याका मन उसीमें लगा देख कर पिताने म यण ल्ला देवी को उसके वहाँ, स्वयंवरा रूपमें-जिसने स्वयं अपना वर चुन लिया है-उसीके पास भेज दिया । इधर कर्ण गुप्तरूपसे स्वयं ही उसे कुरूपा देख कर उसके प्रति सर्वथा निरादर हो गया। राजाके इस प्रकार त्यागके कारण अपनी आठ सखियोंके साथ म य ण ल्ला देवी को प्राणत्याग करनेकी इच्छुक जान कर श्री कर्ण की माता उदय म ति रानीने, उनकी यह विपद देखने में असमर्थ हो कर, उन्हीके साथ प्राणत्यागका सङ्कल्प किया। क्यों कि
१३०. महान् लोग अपनी विपत्तिसे उतने दुःखी नहीं होते जितने दूसरोंकी विपत्तिसे । अपने ऊपर
आघात होने पर जो पृथ्वी अचल रहती है वही दूसरोंकी विपद देख कर काँपने लगती है । इसके बाद महा उपद्रव उपस्थित हुआ जान कर मातृभक्तिवश श्री कर्ण ने उससे विवाह कर लिया। पर बादमें [ बहुत समय तक ] उसकी ओर नज़र उठा कर ताका भी नहीं।
८४) एक बार मु ा ल मंत्रीको कञ्चुकीसे यह मालूम हुआ कि राजाका मन किसी अधम स्त्रीके प्रति सामिलाष है । [ यह जान कर ] उसने ऋतुस्नाता म यण ल्ला दे वी को, उसीका रूप धारण कराके एकान्तमें Jain Education १७-१८
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