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________________ प्रबन्धचिन्तामणि [ কুলীন সময় १०४) किसी समय, सान्धिविग्रहिकों द्वारा डाह ल देश के राजाका निम्न लिखित श्लोक, जो यमल पत्र ( मित्रताका संबंध सूचक पत्र ) पर लिखा हुआ था, सुनाया गया १४६. आ-युक्त हो कर लोकमें प्राणदान करता है, वि-युक्त हो कर मुनियोंको प्रिय होता है, सं-युक्त हो कर सर्वथा अनिष्ट कारक बनता है और केवल-अकेला होने पर स्त्रियोंका प्रिय बनता है। राजाने पूछा कि ' इसमें क्या बात है !' उन्होंने कहा- ' आपके देशमें एक-से-एक प्रधान ऐसे बहुतसे विद्वान् रहते हैं । सो उनसे इस दुर्बोध्य श्लोककी व्याख्या कराइये । ' उनकी यह बात सुन कर सभी विद्वान् उसका अर्थ सोचने लगे पर किसीकी समझमें नहीं आया । राजाने आचार्य हे म चन्द्र से पूछा । उन्होंने इस प्रकार व्याख्या की-' इसमें 'हार' शब्दका अध्याहार है। उसके साथ ' आ ' उपसर्गका योग होनेसे 'आहार' बनता है जो सब जीवोंको प्राण देता है । 'वि' उपसर्गके योगसे · विहार ' बन कर दोनों तरहसे यतियोंका प्रिय होता है । 'सं' के योगसे 'संहार ' बनता है जो सर्वथा अनिष्ट लगता है और बिना किसी उपसर्गके स्त्रियोंका प्रिय आभूषण गलेका ' हार ' होता है।' १०५) एक दूसरी बार, सपा द ल क्ष देशके राजाने 'उगी हुई चन्द्रकला तो गौरीके मुखकमलका अनुहार नहीं कर सकती।' इस प्रकारकी समस्यावाला आधा दोहा यहाँ पर (पाट न में ) भेजा । अन्यान्य उन कवियोंके उसकी पूर्ति न करने पर (और) जो न देखी गई वैसी प्रतिपदाकी चन्द्रकलाकी उपमा दी कैसे जाय ।' इस प्रकारका उत्तरार्द्ध कह कर मुनीन्द्र हे म चन्द्र ने उसको पूर्ण किया। सिद्धराजका सौराष्ट्रके राजा खंगारको विजय करना । १०६) श्री सिद्ध रा ज ने, न व घण नामक आ भी र राणाका निग्रह करनेमें, पहले ग्यारह बार अपनी सेनाका पराजित होना जान कर, वर्द्ध मा न ( व ढ वा ण ) आदि नगरोंमें बड़े बड़े प्राकार बनवा कर, स्वयम् ही उसके लिये प्रयाण किया । उस (न व घन ) के भगिनी पुत्रने [ किलेका रहस्य आदि बतलानेवाले ] संकेत देते समय यह वचन लिया था कि 'किलेका कब्जा करते समय इस न व घन को सिर्फ द्रव्यमारसे मारना ( अर्थात् भारी दण्ड दे कर द्रव्य वसूल करना ), लेकिन किसी शस्त्रके मारसे नहीं मारना ।' [राजाके किल सर कर लेने पर ] उस न व घन को उसकी स्त्रीने कहीं अन्दर छुपा दिया जिसको राजाने उस विशाल महलमेंसे बहार खींच निकाला और धनके भरे हुए बर्तनोंसे उसे पीट पीट कर मार डाला । उसकी स्त्रीको यह कह कर कि ' इसको हमने द्रव्यके मारसे ही मारा है ' अपने वचनका पालन बतलाया और उसे शांत किया । शोकसे निमग्न उसकी रानी [सून ल दे वी1 के ये वाक्य कहे जाते हैं१४८. वह राणा स्वघरमें नहीं है । न कोई उसे लाया है, न कोई लायेगा। खंगार के साथ मैं स्वयं ___ अपने प्राण अग्निमें क्यों न होम हूँ । १४९. और सब राणा तो बनिये हैं और उनमें यह जे स ल ( ज य सिंह ) बडा सेठ है । हमारे गढके नीचे इसने यह कैसा व्यौपार मांड रखा है। १५०. हे गौरवशाली गिरनार तेंने क्यों मनमें मत्सर धारण कर लिया है ? खंगार के मरने पर तेंने अपना एक शिखर भी नहीं गिराया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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