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________________ ९४ मूलसूत्र : एक परिशीलन संकोच और विस्तार नहीं होता । आकाशद्रव्य अखण्ड होने पर भी उसके लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो विभाग किए गए हैं। जिसमें धर्म, अधर्म, काल, जीव, पुद्गल ये पाँच द्रव्य रहते हैं, वह आकाशखण्ड लोकाकाश है। जहाँ इनका अभाव है, सिर्फ आकाश ही है वह अलोकाकाश है। धर्म और अधर्म ये दो द्रव्य सदा लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित हैं, जबकि अन्य द्रव्यों की वैसी स्थिति नहीं है । पुद्गलद्रव्य के अणु और स्कन्ध ये दो प्रकार हैं । अणु का अवगाह्य क्षेत्र आकाश का एक प्रदेश है और स्कन्धों की कोई नियत सीमा नहीं है। दोनों प्रकार के पुद्गल अनन्त - अनन्त हैं । ३१३ कालद्रव्य द्रव्यों के परिवर्तन में सहकारी होता है । समय, पल, घड़ी, घंटा, मुहूर्त, प्रहर, दिन, रात, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष आदि के भेदों को लेकर वह भी आदि - अन्त सहित है । द्रव्य की अपेक्षा अनादि-निधन है । प्रज्ञापना ३१४ तथा जीवाजीवाभिगम‍ -३१५ सूत्रों में विविध दृष्टियों से जीव और अजीव के भेद-प्रभेद किये गये हैं । हमने यहाँ पर प्रस्तुत आगम में आये हुए विभागों को लेकर ही संक्षेप में चिन्तन किया है। प्रस्तुत अध्ययन के अन्त में समाधिमरण का भी सुन्दर निरूपण हुआ है। इस तरह यह आगम ज्ञान-विज्ञान व अध्यात्म-चिन्तन का अक्षय कोश है। व्याख्या - साहित्य उत्तराध्ययननियुक्ति मूल ग्रन्थ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए आचार्यों ने समय-समय पर व्याख्या - साहित्य का निर्माण किया है। जैसे वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए महर्षि यास्क ने निघंटु भाष्य रूप निर्युक्ति लिखी वैसे ही आचार्य भद्रबाहु ने जैन आगमों के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए प्राकृत भाषा में नियुक्तियों की रचना की । आचार्य भद्रबाहु ने दश निर्युक्तियों की रचना की । उनमें उत्तराध्ययन पर भी एक निर्युक्ति है। इस नियुक्ति में छह सौ सात गाथाएँ हैं। इसमें अनेक पारिभाषिक शब्दों का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया गया है और अनेक शब्दों के विविध पर्याय भी दिये हैं। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन शब्द की परिभाषा करते हुए उत्तरपद का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, दिशा, ताप-क्षेत्र, प्रज्ञापक, प्रति, काल, संचय, प्रधान, ज्ञान, क्रम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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