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________________ उत्तराध्ययन सूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ९५ गणना और भाव इन पन्द्रह निक्षेपों से चिन्तन किया है । ३१६ उत्तर का अर्थ क्रमोत्तर किया है । ३१७ नियुक्तिकार ने अध्ययन पद पर विचार करते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार द्वारों से 'अध्ययन' पर प्रकाश डाला है । प्राग् बद्ध और बध्यमान कर्मों के अभाव से आत्मा को जो अपने स्वभाव में ले जाना है, वह अध्ययन है। दूसरे शब्दों में कहें तो - जिससे जीवादि पदार्थों का अधिगम है या जिससे अधिक प्राप्ति होती है अथवा जिससे शीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, वह अध्ययन है। ३१८ अनेक भवों से आते हुए अष्ट प्रकार के कर्म-रज का जिससे क्षय होता है, वह भावाध्ययन है। नियुक्ति में पहले पिण्डार्थ और उसके पश्चात् प्रत्येक अध्ययन की विशेष व्याख्या की गई है। प्रथम अध्ययन का नाम विनयश्रुत है। श्रुत का भी नाम आदि चार निक्षेपों से विचार किया है। निह्नव आदि द्रव्य - श्रुत हैं और जो श्रुत में उपयुक्त है वह भाव - श्रुत है। संयोग शब्द की भी विस्तार से व्याख्या की है। संयोग सम्बन्ध संसार का कारण है। उससे जीव कर्म में आबद्ध होता है। उस संयोग से मुक्त होने पर ही वास्तविक आनन्द की उपलब्धि होती है । ३१९ द्वितीय अध्ययन में परीषह पर भी निक्षेप दृष्टि से विचार है । द्रव्य निक्षेप आगम और नो-आगम के भेद से दो प्रकार का है। नो-आगम परीषह, ज्ञायक - शरीर, भव्य और तद् व्यतिरिक्त इस प्रकार तीन प्रकार का है। कर्म और नोकर्म रूप से द्रव्य परीषह के दो प्रकार हैं। नोकर्म रूप द्रव्य परीषह सचित्त, अचित्त और मिश्र रूप से तीन प्रकार के हैं । भाव परीषह में कर्म का उदय होता है। उसके कुतः, कस्य, द्रव्य, समवतार, अध्यास, नय, वर्तना, काल, क्षेत्र, उद्देश, पृच्छा, निर्देश और सूत्रस्पर्श ये तेरह द्वार हैं । ३२० पिपासा की विविध उदाहरणों के द्वारा व्याख्या की है। क्षुत् तृतीय अध्ययन में चतुरंगीय शब्द की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की है और अंग का भी नामाङ्ग, स्थापनाङ्ग, द्रव्याङ्ग और भावाङ्ग के रूप में चिन्तन करते हुए द्रव्याङ्ग के गंधाङ्ग, औषधाङ्ग, मद्याङ्ग, आतोद्याङ्ग, शरीराङ्ग और युद्धाङ्ग ये छह प्रकार बताये हैं। गंधाङ्ग के जमदग्नि जटा, हरेणुका, शबर निवसनक ( तमालपत्र ), सपिनिक, मल्लिकावासित, औसीर, हबेर, भद्रदारु, शतपुष्पा आदि भेद हैं। इनसे स्नान और विलेपन किया जाता था । औषधाङ्ग गुटिका में पिण्डदारु, हरिद्रा, माहेन्द्रफल, सुष्ठी, पिप्पली, मरिच, आर्द्रक, बिल्वमूल और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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