________________
* ९६ मूलसूत्र : एक परिशीलन
पानी ये अष्ट वस्तुएँ मिली हुई होती हैं। इससे कण्डु, तिमिर, अर्ध-शिरोरोग, पूर्ण शिरोरोग, तात्तीरीक, चातुर्थिक, ज्वर, मूषकदंश, सर्पदंश शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । ३२१ द्राक्षा के सोलह भाग, धातकीपुष्प के चार भाग, एक आढ़क इक्षुरस इनसे मधाङ्ग बनता है। एक मुकुन्दातुर्य, एक अभिमारदारुक, एक शाल्मली पुष्प, इनके बंध से पुष्पोन्मिश्र बाल बंध विशेष होता है । सिर, उदर, पीठ, बाहु, उरु, ये शरीराङ्ग हैं। युद्धाङ्ग के भी यान, आवरण, प्रहरण, कुशलत्व, नीति, दक्षत्व, व्यवसाय, शरीर, आरोग्य ये नौ प्रकार बताये गये हैं। भावाङ्ग के श्रुताङ्ग और नो- श्रुतांग ये दो प्रकार हैं । श्रुताङ्ग के आचार आदि बारह प्रकार हैं। नो- श्रुतांग के चार प्रकार हैं। ये चार प्रकार ही चतुरंगीय के रूप में विश्रुत हैं। मानव-भव की दुर्लभता विविध उदाहरणों के द्वारा बताई गई हैं। मानव-भव प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण कठिन है और उस पर श्रद्धा करना और भी कठिन है। श्रद्धा पर चिन्तन करते हुए जमालि आदि सात निह्नवों का परिचय दिया गया है । ३२२
चतुर्थ अध्ययन का नाम असंस्कृत है। प्रमाद और अप्रमाद दोनों पर निक्षेप दृष्टि से विचार किया गया है। जो उत्तरकरण से कृत अर्थात् निर्वर्तित है, वह संस्कृत है। शेष असंस्कृत हैं। करण का भी नाम आदि छह निक्षेपों से विचार । द्रव्यकरण के संज्ञाकरण और नोसंज्ञाकरण ये दो प्रकार हैं। संज्ञाकरण के कटकरण, अर्थकरण और वेलुकरण ये तीन प्रकार हैं। नो- संज्ञाकरण के प्रयोगकरण और विस्रसाकरण ये दो प्रकार हैं । विस्रसाकरण के सादिक और अनादिक ये दो भेद हैं । अनादि के धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन प्रकार हैं। सादिक के चतुस्पर्श, अचतुस्पर्श ये दो प्रकार हैं। इस प्रकार प्रत्येक के भेद-प्रभेद करके उन सभी की चर्चा करते हैं। इस नियुक्ति में यत्र-तत्र अनेक शिक्षाप्रद कथानक भी दिये हैं। जैसे- गंधार, श्रावक, तोसलीपुत्र, स्थूलभद्र, स्कन्दकपुत्र, ऋषि पाराशर, कालक, करकण्डू आदि प्रत्येकबुद्ध, हरिकेश, मृगापुत्र आदि । निह्नवों के जीवन पर भी प्रकाश डाला गया है । भद्रबाहु के चार शिष्यों का राजगृह के वैभार पर्वत की गुफा में शीत परीषह से और मुनि सुवर्णभद्र के मच्छरों के घोर उपसर्ग से कालगत होने का उल्लेख भी है। इसमें अनेक उक्तियाँ सूक्तियों के रूप में हैं। उदाहरण के रूप में देखिए
Jain Education International
" राई सरिसवमित्ताणि, परछिद्दाणि पाससि ।
अप्पणी बिल्लमित्ताणि, पासंतोऽवि न पाससि ॥"
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org