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________________ ९२ मूलसूत्र : एक परिशीलन जैन आगम - साहित्य में मूर्त और अमूर्त्त के स्थान पर रूपी और अरूपी शब्द अधिक मात्रा में व्यवहृत हुए हैं। जिस द्रव्य में वर्ण, रस, गंध और स्पर्श हो वह रूपी है और जिसमें इनका अभाव हो वह अरूपी है। पुद्गल द्रव्य को छोड़कर शेष चार द्रव्य अरूपी हैं । ३०७ अरूपी द्रव्य जन-सामान्य के लिए अगम्य हैं। उनके लिए केवल पुद्गल द्रव्य गम्य है। पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ये चार प्रकार हैं । परमाणु पुद्गल का सबसे छोटा विभाग है। इससे छोटा अन्य विभाग नहीं हो सकता । स्कन्ध उनके समुदाय का नाम है। देश और प्रदेश ये दोनों पुद्गल के काल्पनिक विभाग हैं । पुद्गल की वास्तविक इकाई परमाणु है। परमाणु रूपी होने पर भी सूक्ष्म होते हैं। इसलिए वे दृश्य नहीं हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म स्कन्ध भी दृग्गोचर नहीं होते । आगम-साहित्य में परमाणुओं की चर्चा बहुत विस्तार के साथ की गई है। जैनदर्शन का मन्तव्य है - इस विराट् विश्व में जितना भी सांयोगिक परिवर्तन होता है, वह परमाणुओं के आपसी संयोग-वियोग और जीव- परमाणुओं के संयोग-वियोग से होता है। 'भारतीय संस्कृति' ग्रन्थ में शिवदत्त ज्ञानी ने लिखा है - "परमाणुवाद वैशेषिक दर्शन की ही विशेषता है । उसका आरम्भ - प्रारम्भ उपनिषदों से होता है। जैन आजीवक आदि के द्वारा भी उसका उल्लेख किया गया है। किन्तु कणाद ने उसे व्यवस्थित रूप दिया । ३०८ पर शिवदत्त ज्ञानी का यह लिखना पूर्ण प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि उपनिषदों का मूल परमाणु नहीं, ब्रह्मविवेचन है। डॉ. हर्मन जैकोबी ने परमाणु सिद्धान्त के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है- "हम जैनों को प्रथम स्थान देते हैं, क्योंकि उन्होंने पुद्गल के सम्बन्ध में अतीव प्राचीन मतों के आधार पर अपनी पद्धति को संस्थापित किया है।” ३०९ हम यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही यह बताना चाहते हैं कि अजीव द्रव्य का जैसा निरूपण जैनदर्शन में व्यवस्थित रूप से हुआ है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं हुआ । I - वह अजीव की तरह जीवों के भी भेद-प्रभेद किये गये हैं । वे विभिन्न आधारों से हुए हैं । एक विभाजन काय को आधार मानकर किया गया है, वह हैस्थावर काय और aसकाय । जिनमें गमन करने की क्षमता का अभाव है, स्थावर हैं। जिनमें गमन करने की क्षमता है, वह तस हैं। स्थावर जीवों के पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति ये पाँच विभाग हैं। तेज और वायु एकेन्द्रिय होने तथा स्थावर नामकर्म का उदय होने से स्थावर होने पर भी गति - त्रस भी कहलाते हैं। प्रत्येक विभाग के सूक्ष्म और स्थूल ये दो विभाग किये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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