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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ९१
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समाधिमरण को वरण करे । जीवनकाल में देह के प्रति जो आसक्ति रही हो उसे शनै- शनैः कम करने का अभ्यास करे । देह को साधना का साधन मानकर देह के प्रतिबन्ध से मुक्त हो । यही अनगार का मार्ग है । अनगार दुःख के मूल को नष्ट करता है। वह साधना के पथ पर बढ़ते समय श्मशान, शून्यागार तथा वृक्ष के नीचे भी निवास करता है । जहाँ पर शीत आदि का भयंकर कष्ट उसे सहन करना पड़ता है, वहाँ पर उसे वह कष्ट नहीं मानकर इन्द्रिय-विजय का मार्ग मानता है। अहिंसा धर्म की अनुपालना के लिए वह भिक्षा आदि के कष्ट को भी सहर्ष स्वीकार करता है। इस तरह इस अध्ययन में अनगार से सम्बन्धित विपुल सामग्री दी गई है।
जीव- अजीव : एक पर्यवेक्षण
छत्तीसवें अध्ययन में जीव और अजीव के विभागों का वर्णन है। जैन तत्त्वविद्या के अनुसार जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। अन्य जितने भी पदार्थ हैं, वे इनके अवान्तर विभाग हैं। जैन दृष्टि से द्रव्य आत्म- केन्द्रित है। उसके अस्तित्त्व का स्रोत किसी अन्य केन्द्र से प्रवहमान नहीं है। जितना वास्तविक और स्वतन्त्र चेतन द्रव्य है, उतना ही वास्तविक और स्वतन्त्र अचेतन तत्त्व है। चेतन और अचेतन का विस्तृत रूप ही यह जगत् है । न चेतन से अचेतन उत्पन्न होता है और न अचेतन से चेतन। इस दृष्टि से जगत् अनादि अनन्त है । यह परिभाषा द्रव्यस्पर्शी नय के आधार पर है। रूपान्तरस्पर्शी नय की दृष्टि से जगत् सादि - सान्त भी है । यदि द्रव्यदृष्टि से जीव अनादि - अनन्त हैं तो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि पर्यायों की दृष्टि से वह सादि - सान्त भी हैं । उसी प्रकार अजीव द्रव्य भी अनादि - अनन्त हैं । पर उसमें भी प्रतिपल - प्रतिक्षण परिवर्तन होता है। इस तरह अवस्था - विशेष की दृष्टि से वह सादि - सान्त है । जैनदर्शन का यह स्पष्ट अभिमत है कि असत् से सत् कभी उत्पन्न नहीं होता। इस जगत् में नवीन कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। जो द्रव्य जितना वर्तमान में है, वह भविष्य में भी उतना ही रहेगा और अतीत में भी उतना ही था । रूपान्तरण की दृष्टि से ही उत्पाद और विनाश होता है। यह रूपान्तरण ही सृष्टि का मूल है।
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अजीव द्रव्य के धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय क्रमशः गति, स्थिति, अवकाश, परिवर्तन, संयोग और वियोगशील तत्त्व पर आधृत हैं। मूर्त्त और अमूर्त का विभाग शतपथब्राह्मण, बृहदारण्यक ३०५ और विष्णुपुराण ३०६ में हुआ है । पर
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