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________________ * ९०* मूलसूत्र : एक परिशीलन भगवती, प्रज्ञापना और पश्चाद्वर्ती साहित्य में लेश्या पर व्यापक रूप से चिन्तन किया गया है। विस्तारभय से हम उन सभी पहलुओं पर यहाँ चिन्तन नहीं कर रहे हैं। पर यह निश्चित है कि जैन मनीषियों ने लेश्या का वर्णन किसी सम्प्रदाय-विशेष से नहीं लिया है। उसका यह अपना मौलिक चिन्तन है।३०३ प्रस्तुत अध्ययन में संक्षेप में कर्मलेश्या के नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य का निरूपण किया है। इन सभी पहलुओं पर श्यामाचार्य ने विस्तार से प्रज्ञापना में लिखा है। व्यक्ति के जीवन का निर्माण उसके अपने विचारों से होता है। वह अपने को जैसा चाहे, बना सकता है। बाह्य जगत् का प्रभाव आन्तरिक जगत् पर होता है और आन्तरिक जगत् का प्रभाव बाह्य जगत् पर होता है। वे एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं। पुद्गल से जीव प्रभावित होता है और जीव से पदगल प्रभावित होता है। दोनों का परस्पर प्रभाव ही प्रभा है, आभा है, कान्ति है, और वही आगम की भाषा में लेश्या है। अनगार धर्म : एक चिन्तन पैंतीसवें अध्ययन में अनगार मार्गगति का वर्णन है। केवल गृह का परित्याग करने से अनगार नहीं होता, अनगार धर्म एक महान् धर्म है। अत्यन्त सतर्क और सजग रहकर इस धर्म की आराधना और साधना की जाती है। केवल बाह्य संग का त्याग ही पर्याप्त नहीं है। भीतर से असंग होना आवश्यक है। जब तक देह आदि के प्रति रागादि सम्बन्ध रहता है तब तक साधक भीतर से असंग नहीं बन सकता। इसीलिए एक जैनाचार्य ने लिखा है- "कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्त्यते।" अर्थात् जिस हृदय में कामनाओं का वास है, वहाँ संसार है। अनगार कामनाओं से ऊपर उठा हुआ होता है, इसीलिए वह असंग होता है। संग का अर्थ लेप या आसक्ति है। प्रस्तुत अध्ययन में उसके हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म-सेवन, इच्छा-काम, लोभ, संसक्त स्थान, गृह-निर्माण, अन्नपाक, धनार्जन की वृत्ति, प्रतिबद्ध-भिक्षा, स्वादवृत्ति और पूजा की अभिलाषा, ये तेरह प्रकार बताए हैं। इन वृत्तियों से जो असंग होता है वही श्रमण है। श्रमणों के लिए इस अध्ययन में कहा गया है कि मुनिधर्म और शुक्लध्यान का अभ्यास करें साथ ही “सुक्कज्झाणं झियाएजा।" अर्थात् शुक्लध्यान में रमण करे। जब तक अनगार जीए तब तक असंग जीवन जीए और जब उसे यह ज्ञात हो कि मेरी मृत्यु सन्निकट आ चुकी है तो आहार का परित्याग कर अनशनपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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