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________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ८९ कर्म प्रवाह से है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म की सत्ता है, प्रवाह है पर वहाँ लेश्या नहीं है। वहाँ पर नये कर्मों का आगमन नहीं होता। कषाय और योग से कर्मबन्धन होता है। कषाय होने पर चारों प्रकार के बंध होते हैं। प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का सम्बन्ध योग से है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का सम्बन्ध कषाय से। केवल योग में स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं होता, जैसे तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्तों के ऐर्यापथिक बन्ध होता है, किन्तु स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं होता। जो दो समय का काल बताया गया है वह काल वस्तुतः कर्म-पुद्गल ग्रहण करने का और उत्सर्ग का काल है। वह स्थिति और अनुभाग का काल नहीं है। तृतीय अभिमतानुसार लेश्या द्रव्य योगवर्गणा के अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य हैं। बिना योग के लेश्या नहीं होती। लेश्या और योग में परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। प्रश्न उठता है-क्या लेश्या को योगान्तर्गत मानना चाहिए या योगनिमित्त द्रव्यकर्म रूप? यदि वह लेश्या द्रव्यकर्म रूप है तो घातिकर्मद्रव्य रूप है अथवा अघातिकर्मद्रव्य रूप है ? लेश्या घातिकर्मद्रव्य रूप नहीं है, क्योंकि घातिकर्म नष्ट हो जाने पर भी लेश्या रहती है। यदि लेश्या को अघातिकर्मद्रव्य स्वरूप माने तो चौदहवें गुणस्थान में अघातिकर्म विद्यमान रहते हैं पर वहाँ लेश्या का अभाव है। इसलिए योग-द्रव्य के अन्तर्गत ही द्रव्यस्वरूप लेश्या मानना चाहिए। लेश्या से कषायों में अभिवृद्धि होती है क्योंकि योगद्रव्य में कषाय-अभिवृद्धि करने की शक्ति है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपना कर्तव्य दिखाते हैं। जिस व्यक्ति को पित्त-विकार हो उसका क्रोध सहज रूप से बढ़ जाता है। ब्राह्मी वनस्पति का सेवन ज्ञानावरण कर्म को कम करने में सहायक है। मदिरापान करने से ज्ञानावरण का उदय होता है। दही का उपयोग करने से निद्रा में अभिवृद्धि होती है। निद्रा दर्शनावरण कर्म का औदयिक फल है। अतः स्पष्ट है कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति ही (लेश्या) स्थितिपाक में सहायक होती है।२९९ ___ गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने योगपरिणाम लेश्या का वर्णन किया है।३०० आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि३०१ में और गोम्मटसार के कर्मकाण्ड खण्ड३०२ में कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है। इस परिभाषा के अनुसार दसवें गुणस्थान तक ही लेश्या हो सकती है। प्रस्तुत परिभाषा अपेक्षाकृत होने से पूर्व की परिभाषाओं से विरुद्ध नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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