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________________ *८८* मूलसूत्र : एक परिशीलन हैं। जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं। उनमें से एक समूह का नाम 'लेश्या' है। वादिवेताल शान्तिसूरि ने लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया किया है।२८९ आचार्य शिवार्य ने लिखा हैलेश्या छाया-पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव के परिणाम हैं।२९० प्राचीन जैन-साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उनसे प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों अर्थों में लेश्या पर चिन्तन किया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने शरीर का वर्ण और आणविक आभा को द्रव्य-लेश्या माना है।२९१ आचार्य भद्रबाहु का भी यही अभिमत है।२९२ उन्होंने विचार को भाव-लेश्या कहा है। द्रव्य-लेश्या पुद्गल है। इसलिए उसे वैज्ञानिक साधनों के द्वारा भी जाना जा सकता है। द्रव्य-लेश्या के पुद्गलों पर वर्ण का प्रभाव अधिक होता है। जिसके सहयोग से आत्मा कर्म में लिप्त होता है वह 'लेश्या' है।२९३ दिगम्बर आचार्य वीरसेन के शब्दों में कहा जाए तो आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है।९४ मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद और योग के द्वारा कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से होता है। आचार्य पूज्यपाद ने कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है।९५ आचार्य अकलंक ने भी उसी परिभाषा का अनुसरण किया है।२९६ संक्षेप में कहा जाए तो कषाय और योग लेश्या नहीं है, पर वे उसके कारण हैं। इसलिए लेश्या का अन्तर्भाव न योग में किया जा सकता है और न कषाय में। कषाय और योग के संयोग से एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। जैसेदही और शक्कर के संयोग से श्रीखण्ड तैयार होता है। कितने ही आचार्यों का अभिमत है कि लेश्या में कषाय की प्रधानता नहीं होती किन्तु योग की प्रधानता होती है। केवलज्ञानी में कषाय का पूर्ण अभाव है पर योग की सत्ता रहती है, इसलिए उसमें शुक्ल-लेश्या है। उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्तिसूरि का मन्तव्य है कि द्रव्य-लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है।२९७ यह द्रव्य-लेश्या कर्मरूप है। तथापि यह आठ कर्मों से पृथक् है, जैसे-कार्मणशरीर। यदि लेश्या को कर्मवर्गणा-निष्पन्न माना जाए तो वह कर्मस्थिति-विधायक नहीं बन सकती। कर्मलेश्या का सम्बन्ध नामकर्म के साथ है। उसका सम्बन्ध शरीर-रचना सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीरनामकर्म है। शरीरनामकर्म के एक प्रकार के पुद्गलों का समूह कर्मलेश्या है।२९८ द्वितीय मान्यता की दृष्टि से लेश्या द्रव्य कर्म निस्यन्द है। निस्यन्द का अर्थ बहते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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