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________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *८७* है वह 'उपशम' है। जिसमें कर्मों का उदय और संक्रमण नहीं हो सके किन्तु उद्वर्तन और अपवर्तन की सम्भावना हो, वह 'निधत्ति' है। जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो, वह 'निकाचित' अवस्था है। कर्म बँधने के पश्चात् अमुक समय तक फल न देने की अवस्था का नाम 'अबाधाकाल' है। जिस कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की है, उतने ही सौ वर्ष का उसका अबाधाकाल होता है। कर्मों की इन प्रक्रियाओं का जैसा विश्लेषण जैन-साहित्य में हुआ है, वैसा विश्लेषण अन्य साहित्य में नहीं हुआ। योगदर्शन में नियतविपाकी, अनियतविपाकी और आवायगमन के रूप में कर्म की त्रिविध अवस्था का निरूपण है। जो नियत समय पर अपना फल देकर नष्ट हो जाता है, वह 'नियतविपाकी' है। जो कर्म बिना फल दिये ही आत्मा से पृथक् हो जाता है, वह 'अनियतविपाकी' है। एक कर्म का दूसरे में मिल जाना 'आवायगमन' है। ___ जैनदर्शन की कर्म-व्याख्या विलक्षण है। उसकी दृष्टि से कर्म पौद्गलिक हैं। जब जीव शुभ अथवा अशुभ प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है तब वह अपनी प्रवृत्ति से उन पुद्गलों को आकर्षित करता है। वे आकृष्ट पुद्गल आत्मा के सन्निकट अपने विशिष्ट रूप और शक्ति का निर्माण करते हैं। वे 'कर्म' कहलाते हैं। यद्यपि कर्मवर्गणा के पुद्गलों में कोई स्वभाव भिन्नता नहीं होती पर जीव के भिन्न-भिन्न अध्यवसायों के कारण कर्मों की प्रकृति और स्थिति में भिन्नता आती है। कर्मों की मूल आठ प्रकृतियाँ हैं। उन प्रकृतियों की अनेक उत्तर-प्रकृतियाँ हैं। प्रत्येक कर्म की पृथक्-पृथक् स्थिति हैं। स्थितिकाल पूर्ण होने पर वे कर्म नष्ट हो जाते हैं। __ प्रस्तुत अध्ययन में कर्मों की प्रकृतियों का और उनके अवान्तर भेदों का निरूपण हुआ है। कर्म के सम्बन्ध में हमने विपाकसूत्र की प्रस्तावना में विस्तार से लिखा है, अतः जिज्ञासु इस सम्बन्ध में उसे देखने का कष्ट करें। लेश्या : एक विश्लेषण चौंतीसवें अध्ययन में लेश्याओं का निरूपण है। इसीलिए इसका नाम 'लेश्या अध्ययन' है। उत्तराध्ययननियुक्ति में इस अध्ययन का विषय कर्म-लेश्या कहा है।२८८ कर्मबन्ध के हेतु रागादि भावकर्म लेश्या है। जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त को समझने में लेश्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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