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________________ ८४ मूलसूत्र : एक परिशीलन प्रस्तुत अध्ययन में इस प्रकार विविध विषयों का संकलन हुआ है । | यहाँ यह चिन्तनीय है कि छेदसूत्र के रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु हैं, जो भगवान महावीर के अष्टम पट्टधर थे । उनका निर्वाण वीर निर्वाण एक सौ सत्तर के लगभग हुआ है। उनके द्वारा निर्मित छेदसूत्रों का नाम प्रस्तुत अध्ययन की सत्तरहवीं और अठारहवीं गाथा में हुआ है । वे गाथाएँ इसमें कैसे आईं ? यह चिन्तनीय है। साधना का विघ्न : प्रमाद बत्तीसवें अध्ययन में प्रमाद का विश्लेषण है । प्रमाद साधना में विघ्न हैं। प्रमाद को निवारण किये बिना साधक जितेन्द्रिय नहीं बनता । प्रमाद का अर्थ है - ऐसी प्रवृत्तियाँ, जो साधना में बाधा उपस्थित करती हैं, साधक की प्रगति को अवरुद्ध करती हैं। उत्तराध्ययननिर्युक्तिर ८० में प्रमाद के पाँच प्रकार बताये हैं - मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा । स्थानांग में प्रमाद - स्थान छह बताये हैं । २८१ उसमें विकथा के स्थान पर द्यूत और छठा प्रतिलेखन प्रमाद दिया है। प्रवचनसारोद्धार में आचार्य नेमीचन्द्र ने प्रमाद के अज्ञान, संशय, मिथ्या ज्ञान, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्म में अनादर, मन, वचन और काया का दुष्परिणाम, ये आठ प्रकार बताये हैं । - २८२ - साधना की दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन में विपुल सामग्री है। साधक को प्रतिपल - प्रतिक्षण जागरूक रहने का संदेश दिया है। जैसे भगवान ऋषभदेव एक हजार वर्ष तक अप्रमत्त रहे, एक हजार वर्ष में केवल एक रात्रि को उन्हें निद्रा आई थी । श्रमण भगवान महावीर बारह वर्ष, तेरह पक्ष साधनाकाल में रहे। इतने दीर्घकाल में केवल एक अन्तमुहूर्त्त निद्रा आई। भगवान ऋषभ और भगवान महावीर ने केवल निद्रा - प्रमाद का सेवन किया था। २८३ शेष समय वे पूर्ण अप्रमत्त रहे। वैसे ही श्रमणों को अधिक से अधिक अप्रमत्त रहना चाहिए। अप्रमत्त रहने के लिए साधक विषयों से उपरत रहे, आहार पर संयम रखे । दृष्टि-संयम, मन, वचन और काया का संयम एवं चिन्तन की पवित्रता अपेक्षित है। बहुत व्यापक रूप से अप्रमत्त रहने के संबंध में चिन्तन हुआ है। प्रस्तुत अध्ययन में आई हुई कुछ गाथाओं की तुलना धम्मपद, सुत्तनिपात, श्वेताश्वतर उपनिषद् और गीता आदि के साथ की जा सकती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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