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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ८३ * -.-.-.-.-."तामस' तप है और जो तप सत्कार, सन्मान तथा प्रतिष्ठा के लिए किया जाता है, वह ‘राजस' तप है।
प्रस्तुत अध्ययन में जैन दृष्टि से तप का निरूपण किया गया है। तप ऐसा दिव्य रसायन है, जो शरीर और आत्मा के यौगिक भाव को नष्ट कर आत्मा को अपने मूल स्वभाव में स्थापित करता है। अनादि-अनन्त काल के संस्कारों के कारण आत्मा का शरीर के साथ तादात्म्य-सा हो गया है। उसे तोड़े बिना मुक्ति नहीं होती। उसे तोड़ने का तप एक अमोघ उपाय है। उसका सजीव चित्रण इस अध्ययन में हुआ है।
इकतीसवें अध्ययन में श्रमणों की चरण विधि का निरूपण होने से इस अध्ययन का नाम भी चरण विधि है। चरण-चारित्र में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों रही हुई हैं। मन, वचन, काया के सम्यक् योग का प्रवर्तन समिति है। समिति में यतनाचार मुख्य है। गुप्ति में अशुभ योगों का निवर्तन है। यहाँ पर निवृत्ति का अर्थ पूर्ण निषेध नहीं है और प्रवृत्ति का अर्थ पूर्ण विधि नहीं है। प्रवृत्ति में निवृत्ति और निवृत्ति में प्रवृत्ति है। विवेकपूर्व प्रवृत्ति संयम है और अविवेकपूर्वक प्रवृत्ति असंयम है। अविवेकपूर्वक प्रवृत्ति से संयम सुरक्षित नहीं रह सकता, इसलिए साधक को अच्छी तरह से जानना चाहिए कि अविवेकयुक्त प्रवृत्तियाँ कौन-सी हैं? साधक को आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की रागात्मक चित्त-वृत्ति से दूर रहना चाहिए। न वह हिंसक व्यापार करे और न भय से भयभीत ही रहे। जिन क्रिया-कलापों से आस्रव होता है, वे क्रिया-स्थान हैं। श्रमण उन क्रिया-स्थानों से सदा अलग रहें। अविवेक से असंयम होता है
और अविवेक से अनेक अनर्थ होते हैं। इसलिए श्रमण असंयम से सतत दूर रहे। साधना की सफलता व पूर्णता के लिए समाधि आवश्यक है, इसलिए असमाधि-स्थानों से श्रमण दूर रहे। आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मार्ग में स्थित रहता है, वह समाधि है। शबल दोष साधु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट होती है, चारित्र मलीन होने से करबूर हो जाता है, उन्हें शबल दोष कहते हैं।२७९ शबल दोषों का सेवन करने वाले श्रमण भी शबल कहलाते हैं। उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चारों दोषों का एवं मूलगुणों में अनाचार के अतिरिक्त तीन दोषों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है। जिन कारणों से मोह प्रबल होता है, उन मोह-स्थानों से भी दूर रहकर प्रतिपल-प्रतिक्षण साधक को धर्म-साधना में लीन रहना चाहिए, जिससे वह संसार-चक्र से मुक्त होता है।
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