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* ८२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.की जाती है और तप से ही ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है,२६७ तप से ही लोक में विजय प्राप्त की जाती है।२६८ मनु ने तो कहा है-तप से ही ऋषिगण त्रैलोक्य में चराचर प्राणियों को देखते हैं।२६९ इस विश्व में जो कुछ भी दुर्लभ और दुस्तर है, वह सब तपस्या से साध्य है, तपस्या की शक्ति दुरतिक्रम है।२७० महापातकी तथा निम्न आचरण करने वाले भी तप से तप्त होकर किल्विषी योनि से मुक्त हो जाते हैं।२७१
बौद्ध साधना-पद्धति में भी तप का उल्लेख हुआ है, पर बौद्ध धर्मावलम्बी मध्यममार्गी होने से जैन और वैदिक परम्परा की तरह कठोर आचार के अर्थ में वहाँ तप शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है। वहाँ तप का अर्थ है-चित्त-शुद्धि का निरन्तर अभ्यास करना। बुद्ध ने कहा-तप, ब्रह्मचर्य आर्यसत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार ये उत्तम मंगल है।२७२ दिट्टठिविज्जसुत्त में कहा-किसी तप या व्रत के करने से किसी के कुशल धर्म बढ़ते हैं, अकुशल धर्म घटते हैं तो उसे अवश्य करना चाहिए।२७३ मज्झिमनिकाय-महासिंहनादसुत्त में बुद्ध सारीपुत्त से अपनी उग्र तपस्या का विस्तृत वर्णन करते हैं।२७४ सुत्तनिपात में बुद्ध बिम्बिसार से कहते हैं-अब मैं तपश्चर्या के लिए जा रहा हूँ, उस मार्ग में मेरा मन रमता है।२७५ तथागत बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् भी बौद्ध भिक्षुओं में धुत्तंग अर्थात् जंगलों में रहकर विविध प्रकार की तपस्याएँ करने
आदि का महत्त्व था। विसुद्धिमग्ग और मिलिन्दप्रश्न में ऐसे धुत्तंगों के ये सारे तथ्य बौद्ध धर्म के तप के महत्त्व को उजागर करते हैं।
जिस प्रकार जैन-साधना में तपश्चर्या का आभ्यन्तर और बाह्य तप के रूप में वर्गीकरण हुआ है, वैसा वर्गीकरण बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में नहीं है। मज्झिमनिकाय कन्दरसुत्त२७६ में एक वर्गीकरण है-बुद्ध ने चार प्रकार के मनुष्य कहे-(१) आत्मन्तप और परन्तप, (२) परन्तप और आत्मन्तप, (३) जो आत्मन्तप भी और परन्तप भी, तथा (४) जो आत्मन्तप भी नहीं और परन्तप भी नहीं। यों विकीर्ण रूप से बौद्ध-साहित्य में तप के वर्गीकरण प्राप्त होते हैं किन्तु वे वर्गीकरण इतने सुव्यवस्थित नहीं हैं। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में तप के तीन रूप मिलते हैं-शारीरिक, वाचिक और मानसिक २७७ तथा सात्विक, राजस और तामस।२७८ जो तप श्रद्धापूर्वक फल की आकांक्षा से रहित निष्कामभाव से किया जाता है, वह ‘सात्विक' तप है; जो तप अज्ञानतापूर्वक स्वयं को एवं दूसरों को कष्ट देने के लिए किया जाता है वह
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