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________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ८१ श्री भरतसिंह उपाध्याय ने "बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन" नामक ग्रन्थ में लिखा है - "भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से ही सम्भूत है, तपस्या से ही इस राष्ट्र का बल या ओज उत्पन्न हुआ है तपस्या भारतीय दर्शनशास्त्र की ही नहीं, किन्तु उसके समस्त इतिहास की प्रस्तावना है प्रत्येक चिन्तनशील प्रणाली चाहे वह आध्यात्मिक हो, चाहे आधिभौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित हैं उसके वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि सभी विद्या के क्षेत्र जीवन की साधना रूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक हैं । " २६१ जैन तीर्थंकरों के जीवन का अध्ययन करने से स्पष्ट है - वे तप साधना के महान् पुरस्कर्त्ता थे । श्रमण भगवान महावीर साधनाकाल के साढ़े बारह वर्ष में लगभग ग्यारह वर्ष निराहार रहे। उनका सम्पूर्ण साधनाकाल आत्म-चिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग में व्यतीत हुआ । उनका जीवन तप की जीती-जागती प्रेरणा है। जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है। आत्मा का शुद्धीकरण है । तप का प्रयोजन है - प्रयासपूर्वक कर्म - पुद्गलों को आत्मा से अलग- अलग कर विशुद्ध आत्म-स्वरूप को प्रकट करना । इसलिए भगवान महावीर ने कहा-तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है, २६२ आबद्ध कर्मों का क्षय करने की पद्धति है । २६३ तप से पाप कर्मों को नष्ट किया जाता है । तप कर्म - निर्जरण का मुख्य साधन है । किन्तु तप केवल काय - क्लेश या उपवास ही नहीं, स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि सभी तप के विभाग हैं। जैन दृष्टि से तप के बाह्य और आभ्यन्तर दो प्रकार हैं । बाह्य तप के अनशन, अवमोदरिका, भिक्षाचर्या, रस - परित्याग, काय-क्लेश और प्रतिसंलीनता, ये छह प्रकार हैं। इनके धारण आचरण से देहाध्यास नष्ट होता है । देह की आसक्ति साधना का महान् विघ्न है। देहासक्ति से विलासिता और प्रमाद समुत्पन्न होता है, इसलिए जैन श्रमण का विशेषण 'वोसट्ट - चत्तदेहे' दिया गया है । बाह्य तप स्थूल है, बाहर से दिखलाई देता है जबकि आभ्यन्तर तप को सामान्य जनता तप के रूप में नहीं जानती। तथापि उसमें तप का महत्त्वपूर्ण एवं उच्च पक्ष निहित है। उसके भी प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये छह प्रकार हैं जो उत्तरोत्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते चले गये हैं । 1 वह वैदिक परम्परा में भी तप की महत्ता रही है। वैदिक ऋषियों का आघोष है - तपस्या से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए, २६४ तप से ही वेद उत्पन्न हुए, २६५ तप से ही ब्रह्म की अन्वेषणा की जाती है, २६६ तप से ही मृत्यु पर विजय प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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