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________________ ८० मूलसूत्र : एक परिशीलन संसार के बीजरूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके, ऐसा कभी सम्भव नहीं है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सम्यक् दर्शनयुक्त पुरुष निश्चित रूप से निर्वाण प्राप्त करता है । २६० अर्थात् सम्यक् दर्शन होने से राग यानि विषयासक्ति का उच्छेद होता है और राग का उच्छेद होने से मुक्ति होती है । सम्यक्त्व या सम्यक् दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है। प्राणरहित शरीर मुर्दा है, वैसे ही सम्यक् दर्शनरहित साधना भी मुर्दा है । वह मुर्दे की तरह त्याज्य है । सम्यक् दर्शन जीवन को एक सही दृष्टि देता है, जिससे जीवन उत्थान की ओर अग्रसर होता है। व्यक्ति की जैसी दृष्टि होगी, वैसे ही उसके जीवन की सृष्टि होगी। इसलिए यथार्थ दृष्टिकोण जीवन-निर्माण की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। प्रस्तुत अध्ययन में उसी यथार्थ दृष्टिकोण को संलक्ष्य में रखकर इकहत्तर प्रश्नोत्तरों के माध्यम से साधना-पद्धति का मौलिक निरूपण किया गया है । ये प्रश्नोत्तर इतने व्यापक हैं कि इनमें प्रायः समग्र जैनाचार समा जाता है। तप एक विहंगावलोकन तीसवें अध्ययन में तप का निरूपण है। सामान्य मानवों की यह धारणा है कि जैन परम्परा में ध्यानमार्ग या समाधिमार्ग का निरूपण नहीं है । पर उनकी यह धारणा सत्य-तथ्य से परे है। जैसे योग परम्परा में अष्टाङ्गयोग का निरूपण है, वैसे ही जैन परम्परा में द्वादशांग तप का निरूपण है । तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करने पर सम्यक् तप का गीता के ध्यानयोग और बौद्ध परम्परा के समाधिमार्ग में अत्यधिक समानता है। तप जीवन का ओज है, शक्ति है। तपोहीन साधना खोखली है। भारतीय आचारदर्शनों का गहराई से अध्ययन करने पर सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्पष्ट होगा कि प्रायः सभी आचार - दर्शनों का जन्म तपस्या की गोद में हुआ है। वे वहीं पले-पुसे और विकसित हुए हैं। अजित-केस कम्बलिन् घोर भौतिकवादी था । गोशालक एकान्त नियतिवादी था । तथापि वे तप साधना में संलग्न रहे । तो फिर अन्य विचार - दर्शनों में तप का महत्त्व हो, इसमें शंका का प्रश्न ही नहीं है । यह सत्य है कि तप के लक्ष्य और स्वरूप के सम्बन्ध में मतैक्य का अभाव रहा है पर सभी परम्पराओं ने अपनी-अपनी दृष्टि से तप की महत्ता स्वीकार की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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