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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *७९
ज्ञाननिष्ठा, कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्ग ये तीनों पृथक्-पृथक् मोक्ष के साधन माने जाते रहे हैं। इन्हीं मान्यताओं के आधार पर स्वतंत्र सम्प्रदायों का भी उदय हुआ। आचार्य शंकर केवल ज्ञान से और रामानुज केवल भक्ति से मुक्ति को स्वीकार करते हैं। पर जैनदर्शन ने ऐसे किसी एकान्तवाद को स्वीकार नहीं किया है।
प्रस्तुत अध्ययन में चौथी गाथा से लेकर चौदहवीं गाथा तक ज्ञानयोग का प्रतिपादन है। पन्द्रहवीं गाथा से लेकर इकतीसवीं गाथा तक श्रद्धायोग का निरूपण है। बत्तीसवीं गाथा से लेकर चौंतीसवीं गाथा तक कर्मयोग का विश्लेषण है। ज्ञान से तत्त्व को जानो, दर्शन से उस पर श्रद्धा करो, चारित्र से आस्रव का निरुधन करो एवं तप से कर्मों का विशोधन करो। इस तरह इस अध्ययन में चार मार्गों का निरूपण कर उसे आत्म-शोधन का प्रशस्त पथ कहा है। इसी पथ पर चलकर जीव शिवत्व को प्राप्त कर सकता है, कर्ममुक्त हो सकता है। सम्यक्त्व : विश्लेषण
उनतीसवाँ अध्ययन सम्यक्त्व-पराक्रम है। जो साधक सम्यक्त्व में पराक्रम करते हैं, वे ही सही दिशा की ओर अग्रसर होते हैं। सम्यक्त्व के कारण ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने सम्यक्त्व
और सम्यक् दर्शन इन दोनों शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ किया है।५५ पर सामान्य रूप से सम्यक् दर्शन और सम्यक्त्व ये दोनों एक ही अर्थ में व्यवहृत होते रहे हैं। सम्यक्त्व यथार्थता का परिचायक है। सम्यक्त्व का एक अर्थ तत्त्व-रुचि भी है।२५६ इस अर्थ में सम्यक्त्व सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। सम्यक्त्व मुक्ति का अधिकार-पत्र है। आचारांग में सम्यक् दृष्टि का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा-सम्यक् दृष्टि पाप का आचरण नहीं करता।२५७ सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है-जो व्यक्ति विज्ञ है, भाग्यवान है, पराक्रमी है पर यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फल की आकांक्षा वाला होने से अशुद्ध होता है।२५८ अशुद्ध होने से वह मुक्ति की ओर न ले जाकर बन्धन की ओर ले जाता है। इसके विपरीत सम्यक् दृष्टि वीतराग दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण उसका कार्य फल की आकांक्षा से रहित
और शुद्ध होता है।२५९ आचार्य शंकर ने भी गीताभाष्य में स्पष्ट शब्दों में सम्यक् दर्शन के महत्त्व को व्यक्त करते हुए लिखा है-सम्यक् दर्शननिष्ठ पुरुष
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