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* ७८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन -.-.-.-.-:-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में, आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में त्रिविध साधनामार्ग का विधान किया है। बौद्धदर्शन में भी शील, समाधि और प्रज्ञा का विधान किया गया है। गीता में भी ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग इस त्रिविध साधना का उल्लेख हुआ है। जैसे जैनधर्म में तप का स्वतन्त्र विवेचन होने पर भी उसे सम्यक् चारित्र के अन्तर्भूत माना गया है वैसे ही गीता के ध्यानयोग को कर्मयोग में सम्मिलित कर लिया गया है। इसी प्रकार पश्चिम में भी त्रिविध साधना और साधना-पथ का भी निरूपण किया गया है। स्वयं को जानो (Know Thyself), स्वयं को स्वीकार करो (Accept Thyself), स्वयं ही बन जाओ (Be Thyself) ये पाश्चात्य परम्परा में तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं।२५०
प्रस्तुत अध्ययन में कहा है-दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं होता, उसका आचरण सम्यक् नहीं होता। सम्यक् आचरण के अभाव में आसक्ति से मुक्त नहीं बना जाता और बिना आसक्ति-मुक्त बने मुक्ति नहीं होती। इस दृष्टि से निर्वाण-प्राप्ति का मूल ज्ञान, दर्शन और चारित्र की परिपूर्णता है। कितने ही आचार्य दर्शन को प्राथमिकता देते हैं तो कितने ही आचार्य ज्ञान को। गहराई से चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक् नहीं होता। आचार्य उमास्वाति ने भी पहले दर्शन और उसके बाद ज्ञान को स्थान दिया है। जब तक दृष्टिकोण यथार्थ न हो तब तक साधना की सही दिशा का भान नहीं होता और उसके बिना लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। सुत्तनिपात में भी बुद्ध कहते हैं-मानव का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है।२५१ श्रद्धा से मानव इस संसाररूप बाढ़ को पार करता है।२५२ श्रद्धावान् व्यक्ति ही प्रज्ञा को प्राप्त करता है।५३ गीता में भी श्रद्धा को प्रथम स्थान दिया है। गीताकार ने ज्ञान की महिमा और गरिमा का संकीर्तन किया है। "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।" कहने के बाद कहा-वह पवित्र ज्ञान उसी को प्राप्त होता है जो श्रद्धावान् है। "श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्।"२५४ सैद्धान्तिक दृष्टि से सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान की उत्पत्ति युगपत् होती है, अर्थात् दृष्टि सम्यक् होते ही मिथ्या ज्ञान सम्यक् ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। अतएव दोनों का पौर्वापर्य कोई विवाद का विषय नहीं है।
ज्ञान और दर्शन के बाद चारित्र का स्थान है। चारित्र साधनामार्ग में गति प्रदान करता है। इसलिए चारित्र का अपने आप में महत्त्व है। जैन दृष्टि से रत्नत्रय के साकल्य में ही मोक्ष की निष्पत्ति मानी गई है। वैदिक परम्परा में
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