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________________ * ७२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन और मुक्तता इन व्रतों का पालन करते थे। उन्हीं का अनुसरण जैनियों ने किया है। डॉ. जैकोबी की प्रस्तुत कल्पना केवल निराधार कल्पना ही है। उसका वास्तविक और ठोस आधार नहीं है। ब्राह्मण परम्परा में पहले व्रत नहीं थे। बोधायन आदि में जो निरूपण है वह बहुत ही बाद का है। ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान पार्श्व के समय व्रत-वयवस्था थी। वही व्रत-व्यवस्था भगवान महावीर ने विकसित की थी। तथागत बुद्ध ने उसे अष्टाङ्गिक मार्ग के रूप में स्वीकार किया और योगदर्शन में यम-नियमों के रूप में उसे ग्रहण किया गया। गाँधीजी के आश्रमधर्म का आधार भी वही है। ऐसा धर्मानन्द कौशाम्बी का भी अभिमत है।२३० डॉ. रामधारीसिंह दिनकर२३१ का मन्तव्य है-हिन्दूत्व और जैनधर्म परस्पर में घुल-मिलकर इतने एकाकार हो गये हैं कि आज का सामान्य हिन्दू यह जानता भी नहीं है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैनधर्म के उपदेश थे न कि हिन्दूत्व के। आधुनिक अनुसन्धान से यह स्पष्ट हो चुका है कि व्रतों की परम्परा का मूल स्रोत श्रमण-संस्कृति है।२३२ __ इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में युग-युग के सघन संशय और उलझे हुए विकल्पों का सही समाधान है। इस संवाद में समत्व की प्रधानता है। इस प्रकार के परिसंवादों से ही सत्य-तथ्य उजागर होता है, श्रुत और शील का समुत्कर्ष होता है। इस अध्ययन में आत्म-विजय और मन का अनुशासन करने के लिए जो उपाय प्रदर्शित किये गये हैं, वे आधुनिक तनाव के युग में परम उपयोगी हैं। चंचल मन को एकाग्र करने के लिए धर्मशिक्षा आवश्यक बनाई है।२३३ वही बात गीताकार ने भी कही है-मन को वश में करने के लिए अभ्यास और वैराग्य आवश्यक है।२३४ आचार्य पतंजलि का भी यही अभिमत रहा है।३५ प्रवचन-माताएँ चौबीसवें अध्ययन का नाम 'समिईओ' है। समवायांगसूत्र में यह नाम प्राप्त है।२३६ उत्तराध्ययननियुक्ति में प्रस्तुत अध्ययन का नाम ‘प्रवचन-मात' या 'प्रवचन-माता' मिलता है।३७ सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान को 'प्रवचन' कहा जाता है। उसकी रक्षा हेतु पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ माता के सदृश हैं। ये प्रवचन-माताएँ चारित्ररूपा हैं। द्वादशांगी में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ही विस्तार से निरूपण है। इसलिये द्वादशांगी प्रवचन-माता का ही विराट रूप है। लौकिक जीवन में माँ की महिमा विश्रुत है। वह शिशु के जीवन के संवर्धन के साथ ही संस्कारों का सिंचन करती है। वैसे ही आध्यात्मिक जीवन में ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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