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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *७१ *
.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.ही महत्त्वपूर्ण है। इस अन्तर का मूल कारण भी गणधर गौतम ने केशीकुमार श्रमण को बताया है। प्रथम तीर्थंकर के श्रमण ऋजु और जड़ थे। अन्तिम तीर्थंकर के श्रमण वक्र और जड़ होते हैं और मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के श्रमण ऋजु और प्राज्ञ थे। प्रथम तीर्थंकर के श्रमणों के लिए आचार को पूर्ण रूप से समझ पाना कठिन था। चरम तीर्थंकर के श्रमणों के लिए आचार का पालन करना कठिन है। किन्तु मध्यवर्ती तीर्थंकरों के श्रमण उसे यथावत् समझने और सरलता से उसका पालन करते थे। इन्हीं कारणों से आचार के दो रूप हुए हैं-चातुर्याम धर्म और पंचयाम धर्म। केशी श्रमण की इस जिज्ञासा पर कि एक ही प्रयोजन के लिए अभिनिष्क्रमण करने वाले श्रमणों के वेश में यह विचित्रता क्यों है? एक रंग-बिरंगे बहुमूल्य वस्त्रों को धारण करते हैं और एक अल्प मूल्य वाले श्वेत वस्त्रधारी हैं। गणधर गौतम ने समाधान करते हुए कहा-मोक्ष की साधना का मूल ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। वेश तो बाह्य उपकरण है, जिससे लोगों को यह ज्ञात हो सके कि ये साधु हैं। 'मैं साधु हूँ।' इस प्रकार ध्यान रखने के लिए ही वेश है। सचेल परम्परा के स्थान पर अचेल परम्परा का यही उद्देश्य है। यहाँ पर अचेल का अर्थ अल्प वस्त्र है।
भगवान पार्श्व के चातुर्यामधर्म में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है। वहाँ पर बाह्य वस्तुओं की अनासक्ति को व्यक्त करने वाला 'बहिद्धादाण-विरमण-बहिस्तात् आदान-विरमण' शब्द है। भगवान महावीर ने उसके स्थान पर ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। ब्रह्मचर्य शब्द वैदिक-साहित्य में व्यवहृत था पर महाव्रत के रूप में 'ब्रह्मचर्य' शब्द का प्रयोग भगवान महावीर ने किया। वैदिक-साहित्य में इसके पूर्व ब्रह्मचर्य शब्द का प्रयोग महाव्रत के रूप में नहीं हुआ। इसी तरह अपरिग्रह शब्द का प्रयोग भी महाव्रत के रूप में सर्वप्रथम ऐतिहासिक काल में भगवान महावीर ने ही किया है। जाबालोपनिषद्,२२२ नारदपरिव्राजकोपनिषद्,२२३ तेजोबिन्दूपनिषद्,२२४ याज्ञवल्क्योपनिषद्,२२५ आरुणिकोपनिषद्,२२६ गीता,२२७ योगसूत्र२२८ आदि ग्रन्थों में अपरिग्रह शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु वे सारे ग्रन्थ भगवान महावीर के बाद के हैं, ऐसा ऐतिहासिक मनीषियों का मत है। भगवान महावीर के पूर्ववर्ती ग्रन्थों में 'अपरिग्रह' शब्द का प्रयोग महान् व्रत के रूप में नहीं हुआ है। ___ डॉ. हर्मन जैकोबी ने लिखा है-जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से उधार लिए हैं।२२९ उनका यह मन्तव्य है-ब्राह्मण संन्यासी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सन्तोष
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