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________________ * ६० मूलसूत्र : एक परिशीलन इनके पिता का नाम 'महाहरिश' था और माता का नाम 'मेरा' था । जय राजगृह नगर के राजा समुद्रविजय के पुत्र थे। इनकी माँ का नाम वप्रका था। ये ग्यारहवें चक्रवर्ती के रूप में विश्रुत हुए । भरत से लेकर जय तक तीर्थंकरों और चक्रवर्तियों का अस्तित्त्व काल प्रागैतिहासिक काल है । इन सभी ने संयममार्ग को ग्रहण किया। दशार्णभद्र दशार्ण जनपद के राजा थे। ये भगवान महावीर के समकालीन थे । नमि विदेह के राजा थे। चूड़ी की नीरवता के निमित्त से प्रतिबुद्ध हुए थे। 'कुम्भजातक' में मिथिला के निमि राजा का उल्लेख है । वह गवाक्ष में बैठा हुआ राजपथ की शोभ निहार रहा था। एक चील माँस का टुकड़ा लिए हुए आकाश में जा रही थी । इधर-उधर से गिद्धों ने उसे घेर लिया। एक गिद्ध ने उस माँस के टुकड़े को पकड़ लिया। दूसरा छोड़कर चल दिया। राजा ने देखा - जिस पक्षी ने माँस का टुकड़ा लिया, उसे दुःख सहन करना पड़ा है और जिसने माँस का टुकड़ा छोड़ा उसे सुख मिला। जो कामभोगों को ग्रहण करता है, उसे दुःख मिलता है । मेरी सोलह हजार पत्नियाँ हैं। मुझे उनका परित्याग कर सुखपूर्वक रहना चाहिए। निमि ने भावना की बुद्धि से प्रत्येकबोधि को प्राप्त किया। करकण्डू कलिंग के राजा थे । वे बूढ़े बैल को देखकर प्रतिबुद्ध हुए। वे सोचने लगे - 'एक दिन यह बैल बछड़ा था, युवा हुआ। इसमें अपार शक्ति थी। आज इसकी आँखें गड़ी जा रही हैं, पैर लड़खड़ा रहे हैं।' उनका मन वैराग्य से भर गया । संसार की परिवर्तनशीलता का भान होने से वह प्रत्येकबुद्ध हुए । १७४ बौद्ध-साहित्य १७५ में भी कलिंग राष्ट्र के दन्तपुर नगर का राजा करकण्डू था। एक दिन उसने फलों से लदे हुए आम्र-वृक्ष को देखा। उसने एक आम तोड़ा। राजा के साथ जो अन्य व्यक्ति थे उन सभी ने आमों को एक-एक कर तोड़ लिया । वृक्ष फलहीन हो गया । लौटते समय राजा ने उसे देखा । उसकी शोभा नष्ट हो चुकी थी। राजा सोचने लगा- 'वृक्ष फल - सहित था, तब तक उसे भय था। धनवान् को सर्वत्र भय होता है। अकिंचन को कहीं भी भय नहीं।' मुझे भी फलरहित वृक्ष की तरह होना चाहिए। वह विचारों की तीव्रता से प्रत्येकबुद्ध हो गया। . १७६ द्विमुख पांचाल के राजा थे। ये इन्द्रध्वज को देखकर प्रतिबोधित हुए। बौद्ध - साहित्य में भी दुमुख राजा का वर्णन है। वे उत्तरपांचाल राष्ट्र में कम्पिल नगर के अधिपति थे । वे भोजन से निवृत्त होकर राजाङ्गण की श्री को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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