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________________ ५८ मूलसूत्र : एक परिशीलन आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार' १७० में और पं. आशाधर जी १७१ ने अनगारधर्मामृत में शील आराधना में विघ्न समुत्पन्न करने वाले दस कारण बताये हैं। उन सभी कारणों में प्रायः उत्तराध्ययन में निर्दिष्ट कारण ही हैं । कुछ कारण पृथक् भी हैं। इन सभी कारणों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि जैन आगम साहित्य तथा उसके पश्चात्वर्ती साहित्य में जिस क्रम से निरूपण हुआ है, वैसा शृंखलाबद्ध निरूपण वेद और उपनिषदों में नहीं हुआ है । - १७२ मृ में कहा गया है - मैथुन के स्मरण, कीर्तन, क्रीड़ा, देखना, गुह्य भाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रिया ये आठ प्रकार बताये गये हैं- इनसे अलग रहकर ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए । त्रिपिटक साहित्य में ब्रह्मचर्य - गुप्तियों का जैन साहित्य की तरह व्यवस्थित क्रम प्राप्त नहीं है किन्तु कुछ छुटपुट नियम प्राप्त होते हैं । उन नियमों में मुख्य भावना है - अशुचि भावना ! अशुचि भावना से शरीर की आसक्ति दूर की जाती है । इसे ही कायगता स्मृति कहा है । १७३ श्रेष्ठ - श्रमण और पाप - श्रमण में अन्तर - सत्तरहवें अध्ययन में पाप - श्रमण के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है। जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का सम्यक् प्रकार से पालन करता है, वह श्रेष्ठ - श्रमण है । श्रामण्य का आधार आचार है। आचार में मुख्य अहिंसा है। अहिंसा का अर्थ है- सभी जीवों के प्रति संयम करना । जो श्रमणाचार का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं करता और जो अकर्त्तव्य कार्यों का आचरण करता है, वह पाप श्रमण है । जो विवेक भ्रष्ट श्रमण है, वह सारा समय खाने, पीने और सोने में व्यतीत कर देता है । न समय पर प्रतिलेखन करता है और न समय पर स्वाध्याय, ध्यान आदि ही । समय पर सेवा-शुश्रूषा भी नहीं करता है । वह पाप - श्रमण है । श्रमण का अर्थ केवल वेश - परिवर्तन करना नहीं, जीवन - परिवर्तन करना है। जिसका जीवन परिवर्तित-आत्मनिष्ठ, अध्यात्मनिरत हो जाता है, भगवान महावीर ने उसे श्रेष्ठ- श्रमण की अभिधा से अभिहित किया है। प्रस्तुत अध्ययन में पाप - श्रमण के जीवन का शब्द-चित्र संक्षेप में प्रतिपादित है । गागर में सागर अठारहवें अध्ययन में राजा संजय का वर्णन है। एक बार राजा संजय शिकार के लिए केशर उद्यान में गया । वहाँ उसने संत्रस्त मृगों को मारा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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