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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ५७ *
वाले अवयव उससे वंचित रह जाते हैं। उनमें जो क्षमता आनी चाहिए, वह नहीं आ पाती। फलतः शरीर में विविध प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं। इसी बात को आयुर्वेद के आचार्यों ने एक रूपक के माध्यम से स्पष्ट किया है। सात क्यारियों में से सातवीं क्यारी में बड़ा खड्डा हो और जल को बाहर निकलने के लिए छेद हो तो सारा जल उस गड्ढे में एकत्रित होगा। यही स्थिति अब्रह्म के कारण शुक्र क्षय की होती है। छहों रस शुक्र धातु की पुष्टि में लगते हैं। किन्तु अत्यन्त अब्रह्म के सेवन करने वाले का शुक्र पुष्ट नहीं होता जिसके फलस्वरूप अन्य धातुओं की पुष्टि नहीं हो पाती और शरीर में नाना प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं। इन्द्रियविजेता ही ब्रह्मचर्य का पालन कर पाता है। ब्रह्मचर्य के पालन से शरीर में अपूर्व स्थिरता, मन में स्थिरता, अपूर्व उत्साह और सहिष्णुता आदि सद्गुणों का विकास होता है।
कितने ही चिन्तकों का यह मानना है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य से शरीर और मन पर जैसा अनुकूल प्रभाव होना चाहिए, वह नहीं होता। उनके चिन्तन में
आंशिक सच्चाई है। और वह यह है-जब ब्रह्मचर्य का पालन स्वेच्छा से न कर विवशता से किया जाता है, तन से तो ब्रह्मचर्य का पालन होता है, किन्तु मन में विकार भावनाएँ होने से वह ब्रह्मचर्य हानिप्रद होता है किन्तु जिस ब्रह्मचर्य में विवशता नहीं होती, आन्तरिक भावना से जिसका पालन किया जाता है, विकारी भावनाओं को उदात्त भावनाओं की ओर मोड़ दिया जाता है, उस ब्रह्मचर्य का तन और मन पर श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता है।
जो लोग ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना चाहते हैं वे गरिष्ठ आहार व दर्पकर आहार ग्रहण न करें और मन पर भी नियंत्रण करें। जब कामवासना मस्तिष्क के पिछले भाग से उभरे तब उसके उभरते ही उस स्थान पर मन को एकाग्र कर शुभ संकल्प किया जाये तो वह उभार शान्त हो जायेगा। कामजनक अवयवों के स्पर्श से भी वासना उभरती है, इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन में ब्रह्मचर्य-समाधि के दश स्थानों का उल्लेख किया गया है।
स्थानांग और समवायांग में भी नौ गुप्तियों का वर्णन है। जो पाँचवाँ स्थान उत्तराध्ययन में बताया गया है वह स्थानांग और समवायांग में नहीं है। उत्तराध्ययन का ‘दश समाधि-स्थान' वर्णन बड़ा ही मनोवैज्ञानिक है। शयन, आसन, कामकथा आदि ब्रह्मचर्य की साधना में विघ्नरूप हैं। इन विघ्नों के निवारण करने से ही ब्रह्मचर्य सम्यक् प्रकार से पालन किया जाता है।
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