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* ५० * मूलसूत्र : एक परिशीलन
ऐसा नहीं हो पाया है। जातक कथा में न्यग्रोध वृक्ष के देवता के द्वारा पुरोहित को चार पुत्रों का वरदान मिलता है परन्तु राजा को एक पुत्र का वरदान भी नहीं मिलता है, जबकि राज्य के संरक्षण के लिए उसे एक पुत्र की अत्यधिक आवश्यकता है। इन्हीं तथ्यों के आधार से डॉ. घाटगे उत्तराध्ययन की कथावस्तु को प्राचीन और व्यवस्थित मानते हैं।४९
प्रस्तुत अध्ययन की कथावस्तु महाभारत के शान्तिपर्व, अध्याय १७५ तथा २७७ से मिलती-जुलती है। महाभारत के दोनों अध्यायों का प्रतिपाद्य विषय एक है। केवल नामों में अन्तर है। दोनों अध्यायों में महाराजा युधिष्ठिर भीष्म पितामह से कल्याण-मार्ग के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं। उत्तर में भीष्म पितामह प्राचीन इतिहास का एक उदाहरण देते हैं, जिसमें एक ब्राह्मण और मेधावी पुत्र का मधुर संवाद है। पिता ब्राह्मण-पुत्र मेधावी से कहता है-“वेदों का अध्ययन करो, गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होकर पुत्र पैदा करो, क्योंकि उससे पितरों की सद्गति होगी। यज्ञों को करने के पश्चात् वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होना।" उत्तर में मेधावी ने कहा-“संन्यास संग्रहण करने के लिए काल की मर्यादा अपेक्षित नहीं है। अत्यन्त वृद्धावस्था में धर्म नहीं हो सकता। धर्म के लिए मध्यम वय ही उपयुक्त है। किये हुए कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। यज्ञ करना कोई आवश्यक नहीं है। जिस यज्ञ में पशुओं की हिंसा होती है, वह तामस यज्ञ है। तप, त्याग और सत्य ही शान्ति का राजमार्ग है। सन्तान के द्वारा कोई पार नहीं उतरता। धन, जन परित्रायक नहीं हैं, इसलिए आत्मा की अन्वेषणा की जाये।
उत्तराध्ययन और महाभारत के पद्यों में अर्थसाम्य ही नहीं शब्दसाम्य भी है। शब्दसाम्य को देखकर जिज्ञासुओं को आश्चर्य हुए बिना नहीं रह सकता। विस्तारभय से हम यहाँ उत्तराध्ययन की गाथाओं और महाभारत के श्लोकों की तुलना प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। संक्षेप में संकेत मात्र दे रहे हैं।१५० साथ ही उत्तराध्ययन और जातक कथा में आये हुए कुछ पद्यों का भी यहाँ संकेत सूचित कर रहे हैं, जिससे पाठकों को तुलनात्मक अध्ययन करने में सहूलियत हो।१५१ ___प्रस्तुत अध्ययन की ४४ और ४५वीं गाथा में जो वर्णन है, वह वर्णन जातक के १८ श्लोक में दी गई कथा से जान सकते हैं। वह प्रसंग इस प्रकार है-जब पुरोहित का सम्पूर्ण परिवार प्रव्रजित हो जाता है, राजा उसका सारा
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