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________________ * ४८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-..-.-.-.उपजाति प्रभृति विभिन्न छन्दों में निर्मित हैं। किन्तु छन्दों की पृथक्ता के कारण उन गाथाओं को प्रक्षिप्त और अर्वाचीन मानना अनुपयुक्त है। ___ चौदहवें अध्ययन में राजा इषुकार, महारानी कमलावती, भृगु पुरोहित, यशा पुरोहित-पत्नी तथा भृगु पुरोहित के दोनों पुत्र, इन छह पात्रों का वर्णन है। पर राजा की प्रधानता होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'इषुकारीय' रखा गया है, ऐसा नियुक्तिकार का मंतव्य है।४४ श्रमण भगवान महावीर के युग में अनेक विचारकों की यह धारणा थी कि बिना पुत्र के सद्गति नहीं होती।४५ स्वर्ग सम्प्राप्त नहीं होता। अतः प्रत्येक व्यक्ति को गृहस्थधर्म का पालन करना चाहिए जिससे सन्तानोत्पत्ति होगी और लोक तथा परलोक दोनों सुधरेंगे। परलोक को सुखी बनाने के लिए पुत्र-प्राप्ति हेतु विविध प्रयत्न किये जाते थे। भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में इस मान्यता का खण्डन किया। उन्होंने कहा-स्वर्ग और नरक की उपलब्धि सन्तान से नहीं होती। यहाँ तक कि माता-पिता, भ्राता, पुत्र, स्त्री आदि कोई भी कर्मों के फलविपाक से बचाने में समर्थ नहीं हैं। सभी को अपने ही कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इस कथा का चित्रण प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है। आचार्य भद्रबाहु ने प्रस्तुत अध्ययन में आये हुए सभी पात्रों के पूर्वभव, वर्तमान भव और निर्वाण का संक्षेप में वर्णन किया है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि माता-पिता मोह के वशीभूत होकर पुत्रों को मिथ्या बात कहते हैं-जैन श्रमण बालकों को उठाकर ले जाते हैं। वे उनका माँस खा जाते हैं। किन्तु जब बालकों को सही स्थिति का परिज्ञान होता है तो वे श्रमणों के प्रति आकर्षित ही नहीं होते किन्तु श्रमणधर्म को स्वीकार करने को उद्यत हो जाते हैं। इस अध्ययन में पिता और पुत्र का मधुर संवाद है। इस संवाद में पिता ब्राह्मण-संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर रहा है तो पुत्र श्रमण-संस्कृति का। ब्राह्मणसंस्कृति पर श्रमण-संस्कृति की विजय बताई गई है। उनकी मौलिक मान्यताओं की चर्चा है। पुरोहित भी त्याग-मार्ग को ग्रहण करता है और उसकी पत्नी आदि भी। __ प्रस्तुत अध्ययन का गहराई से अध्ययन करने पर यह भी स्पष्ट होता है कि उस युग में यदि किसी का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता था तो उसकी सम्पत्ति का अधिकारी राजा होता था। भृगु पुरोहित का परिवार दीक्षित हो गया तो राजा ने उसकी सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहा, किन्तु महारानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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