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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ४७ *
"चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं। कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुन्दर पावगं वा॥"
-उत्तराध्ययन १३/२४
तुलना कीजिए
“अन्यो धनं प्रेतगतस्य भुङ्क्ते, वयांसि चाग्निश्च शरीरधातून्। द्वाभ्यामयं सह गच्छत्यमुत्र, पुण्येन पापेन च चेष्ट्रयमानः॥"
--उद्योगपर्व ४०/१७ "तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं डहिय उ पावगेणं। भज्जा य पुत्ता वि य नायओ य, दायारमन्नं अणुसंकमन्ति॥"
-उत्तराध्ययन १३/२५ तुलना कीजिए
"उत्सृज्य विनिवर्तन्ते, ज्ञातयः सुहृदः सुताः। अपुष्पानफलान् वृक्षान्, यथा तात ! पतत्रिणः॥” –उद्योगपर्व ४०/१७ "अनुगम्य विनाशान्ते, निवर्तन्ते ह बान्धवाः। अग्नौ प्रक्षिप्य पुरुषं, सुहृदस्तथा॥" -शान्तिपर्व ३२१/७४ "अच्चेइ कालो तूरन्ति राइओ, न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी॥"
-उत्तराध्ययन १३/३१
तुलना कीजिए“अच्चयन्ति अहोरत्ता
॥" -थेरगाथा १४८ सरपेण्टियर ने प्रस्तुत अध्ययन की तीन गाथाओं को अर्वाचीन माना है, किन्तु उसके लिए उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया है। उत्तराध्ययन के चूर्णि व अन्य व्याख्या-साहित्य में कहीं पर भी इस सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों ने ऊहापोह नहीं किया है। ये तीनों गाथाएँ प्रकरण की दृष्टि से भी उपयुक्त प्रतीत होती हैं, क्योंकि इन गाथाओं का सम्बन्ध आगे की गाथाओं से है। यह सत्य है कि प्रारम्भ की तीन गाथाएँ आर्या छन्द में निबद्ध हैं तो आगे की अन्य गाथाएँ अनुष्टप्,
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