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* ४६ मूलसूत्र : एक परिशीलन
चित्त मुनिधर्म की आराधना कर एवं सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर मुक्त होते हैं । ब्रह्मदत्त कामभोगों में आसक्त बनकर नरकगति को प्राप्त होता है। बौद्ध परम्परा की दृष्टि से संभूतको ब्रह्मलोकगामी बताया गया है। डॉ. घाटगे का अभिमत है कि जातक का प-विभाग गद्य-विभाग से अधिक प्राचीन है । गद्य-भाग बाद में लिखा गया है। इस तथ्य की पुष्टि भाषा और तर्क के आधार से होती है। तथ्यों के आधार से यह भी सिद्ध है कि उत्तराध्ययन की कथावस्तु प्राचीन है। जातक का गद्य-भाग उत्तराध्ययन की रचनाकाल से बहुत बाद में लिखा गया है। उसमें पूर्वभवों का सुन्दर संकलन है, किन्तु जैन कथावस्तु में वह छूट गया है।
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उत्तराध्ययन के तेरहवें अध्ययन में जो गाथाएँ आई हैं, उसी प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति महाभारत के शान्तिपर्व और उद्योगपर्व में भी हुई है । हम यहाँ उत्तराध्ययन की गाथाओं के साथ उन पद्यों को भी दे रहे हैं, , जिससे प्रबुद्ध पाठकों को सहज रूप से तुलना करने में सहूलियत हो । देखिए
" जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले ।
न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिंसहरा भवंति ॥"
तुलना कीजिए
"तं पुत्रपशुसम्पन्नं, व्यासक्तमनसं नरम् ।
सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव, मृत्युरादाय गच्छति ॥
सचिन्वानकमेवैनं, कामानामवितृप्तकम् ।
व्याघ्रः पशुमिवादाय, मृत्युरादाय गच्छति ॥” - शान्तिपर्व १७५/१८-१९ "न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥”
-उत्तराध्ययन १३/२३
- उत्तराध्ययन १३/२
तुलना कीजिए
"मृतं पुत्रं दुःखपुष्टं मनुष्या, उत्क्षिप्य राजन् ! स्वगृहान्निर्हरन्ति । तं मुक्तकेशाः करुणं रुदन्ति, चितामध्ये काष्ठमिव क्षिपन्ति ॥”
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- उद्योगपर्व ४०/१५
" अग्नौ प्रास्तं तु पुरुषं, कर्मान्वेति स्वयं कृतम् ।”
-वही ४०/१८
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