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________________ * ४४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन कि उसमें जीवों की हिंसा होती है। वह धर्म नहीं अपितु पाप है। साथ ही वास्तविक आध्यात्मिक यज्ञ का स्वरूप भी इन अध्ययनों में स्पष्ट किया गया है। उस समय निर्ग्रन्थ श्रमण यज्ञ के बाड़ों में भिक्षा के लिए जाते थे और यज्ञ की व्यर्थता बताकर आत्मिक यज्ञ की सफलता का प्रतिपादन करते थे।३५ तथागत बुद्ध भिक्षुसंघ के साथ यज्ञ-मण्डप में गये थे। उन्होंने अल्प सामग्री के द्वारा महान् यज्ञ का प्रतिपादन किया। उन्होंने 'कूटदन्त' ब्राह्मण को पाँच महाफलदायी यज्ञ बताये थे। वे ये हैं-(१) दानयज्ञ, (२) त्रिशरणयज्ञ, (३) शिक्षापदयज्ञ, (४) शीलयज्ञ, तथा (५) समाधियज्ञ।३६ ।। ___ इस तरह बारहवें अध्ययन में श्रमण-संस्कृति की दृष्टि से विपुल सामग्री है। प्रस्तुत कथा प्रकारान्तर से बौद्ध साहित्य में भी आई है। उस कथा का सारांश इस प्रकार है-वाराणसी का मंडव्यकुमार प्रतिदिन सोलह सहस्र ब्राह्मणों को भोजन प्रदान करता था। एक बार मातंग पण्डित हिमालय के आश्रम से भिक्षा के लिए वहाँ आया। उसके मलिन और जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को देखकर उसे वहाँ से लौट जाने को कहा गया। मातंग पण्डित ने मंडव्य को उपदेश देकर दान-क्षेत्र की यथार्थता प्रतिपादित की। मंडव्य के साथियों ने मातंग को खूब पीटा। नगर के देवताओं ने क्रुद्ध होकर ब्राह्मणों की दुर्दशा की। श्रेष्ठी-कन्या 'दिट्ठमंगला' वहाँ पर आई। उसने वहाँ की स्थिति देखी। उसने स्वर्ण-कलश और प्याले लेकर मातंग पण्डित से जाकर क्षमायाचना की। मातंग पण्डित ने ब्राह्मणों को ठीक होने का उपाय बताया। दिट्ठमंगला ने ब्राह्मणों को दान-क्षेत्र की यथार्थता बतलाई।१३७ उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन की अनेक गाथाओं का ही रूप मातंग जातक की अनेक गाथाओं में ज्यों का त्यों मिलता है। ३८ डॉ. घाटगे का मानना है कि बौद्ध परम्परा की कथावस्तु विस्तार के साथ लिखी गई है। उसमें अनेक विचारों का सम्मिश्रण हुआ है। जबकि जैन परम्परा की कथावस्तु में अत्यन्त सरलता है तथा हृदय को छूने की विशेषता रही हुई है। इससे यह स्पष्ट है कि बौद्ध कथावस्तु से जैन कथावस्तु प्राचीन है। मातंग जातक में ब्राह्मणों के प्रति तीव्र रोष व्यक्त किया गया है। ब्राह्मणों को अपराध हो जाने से झूठन खाने के लिए उत्प्रेरित करना और उन्हें धोखा देना, ये ऐसे तथ्य हैं जो साम्प्रदायिक भावना के प्रतीक हैं।१३९ पर जैन कथा में मानवता और सहानुभूति रही हुई है।१४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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