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________________ * ४२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन चतुर्दशपूर्वी किया है। प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत के गुणों का वर्णन है। यों बहुश्रुत के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन भेद किये हैं। जघन्यनिशीथशास्त्र का ज्ञाता, मध्यम-निशीथ से लेकर चौदह पूर्व के पहले तक का ज्ञाता और उत्कृष्ट-चौदह पूर्वो का वेत्ता। प्रस्तुत अध्ययन में विविध उपमाओं से तेजस्वी व्यक्तित्व को उभारा गया है। वस्तुतः ये उपमाएँ इतनी वास्तविक हैं कि पढ़ते-पढ़ते पाठक का सिर सहज ही श्रद्धा से बहुश्रुत के चरणों में नत हो जाता है। बहुश्रुतता प्राप्त होती है-विनय से। विनीत व्यक्ति को प्राप्त करके ही श्रुत फलता और फूलता है। जिसमें क्रोध, प्रमाद, रोग, आलस्य और स्तब्धता ये पाँच विघ्न हैं, वह बहुश्रुतता प्राप्त नहीं कर सकता। विनीत व्यक्ति ही बहुश्रुतता का पूर्ण अधिकारी है। ___ बारहवें अध्ययन में मुनि हरिकेशवल के सम्बन्ध में वर्णन है। हरिकेश चाण्डाल-कुल में उत्पन्न हुए थे। किन्तु तप के दिव्य प्रभाव से वे देवताओं के द्वारा भी वन्दनीय बन गये थे। प्रस्तुत ‘अध्ययन' में दान के लिए सुपात्र कौन है ? इस सम्बन्ध में कहा है-“जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह की प्रधानता है, वह दान का पात्र नहीं है। स्नान के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया गया है। हरिकेश मुनि ने ब्राह्मणों से कहा- 'बाह्य स्नान से आत्म-शुद्धि नहीं होती, क्योंकि वैदिक परम्परा में जल-स्नान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया था।" हरिकेशबल मुनि से पूछा गया-"आपका जलाशय कौन-सा है, शान्तितीर्थ कौन-सा है, आप कहाँ पर स्नान कर कर्मरज को धोते हैं?" मुनि ने कहा-"अकलषित एवं आत्मा के प्रसन्न लेश्या वाला धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य मेरा शान्तितीर्थ है। जहाँ पर स्नान कर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्मरज का त्याग करता हूँ। यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा इष्ट है। यह महास्नान है, अतः ऋषियों के लिए प्रशस्त है। इस धर्म-नद में स्नान किये हुए महर्षि विमल विशुद्ध होकर उत्तम गति (मुक्ति) को प्राप्त हुए हैं। निर्ग्रन्थ परम्परा में आत्म-शुद्धि के लिए बाह्य स्नान को स्थान नहीं दिया गया है। एकदण्डी, त्रिदण्डी परिव्राजक स्नानशील और शुचिवादी थे।१२४ आचार्य संघदासगणी ने त्रिदण्डी परिव्राजक को श्रमण कहा है।२५ आचार्य शीलांक ने भी उसे श्रमण माना है।२६ आचार्य वट्टकेर ने तापस, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी आदि को श्रमण कहा है।२७ ये श्रमण जल-स्नान को महत्त्व देते थे, किन्तु निर्ग्रन्थ परम्परा ने स्नान को अनाचीर्ण कहा है। बौद्ध परम्परा में पहले स्नान का निषेध नहीं था। बौद्ध भिक्षु नदियों में स्नान करते थे। एक बार बौद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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