________________
उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
४१
मात्र आहार ग्रहण करने वाला गृहस्थ मुनिधर्म की सोलहवीं कला भी प्राप्त नहीं कर सकता।" इस प्रकार गृहस्थ-जीवन की अपेक्षा श्रमण-जीवन को श्रेष्ठ बताया गया है। अन्त में इन्द्र नमि राजर्षि के दृढ़ संकल्प को देखकर अपना असली रूप प्रकट करता है और नमि राजर्षि की स्तुति करता है। प्रस्तुत अध्ययन में ब्राह्मण-संस्कृति और श्रमण-संस्कृति का पार्थक्य प्रकट किया गया है। जागरण का सन्देश
दसवें अध्ययन में भगवान महावीर द्वारा गौतम को किया गया उद्बोधन संकलित है। गौतम के माध्यम से सभी श्रमणों को उद्बोधन दिया गया है। जीवन की अस्थिरता, मानवभव की दुर्लभता, शरीर और इन्द्रियों की धीरे-धीरे क्षीणता तथा त्यक्त कामभोगों को पुनः न ग्रहण करने की शिक्षा दी गई है। जीवन की नश्वरता द्रुमपत्र की उपमा से समझाई गई है। यह उपमा अनुयोगद्वार आदि में भी प्रयुक्त हुई है। वहाँ पर कहा है-पके हुए पत्तों को गिरते देख कोपलें खिलखिलाकर हँस पड़ीं। तब पके हुए पत्तों ने कहा-"जरा ठहरो ! एक दिन तुम पर भी वही बीतेगी जो आज हम पर बीत रही है।"१२३ इस उपमा का उपयोग परवर्ती साहित्य में कवियों ने जमकर किया है।
दसवें अध्ययन में बताया है-जैसे शरद ऋत का रक्त कमल जल में लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार भगवान महावीर ने गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा-"तू अपने स्नेह का विच्छेद कर निर्लिप्त बन।' यही बात धम्मपद में भी कही गई है। भाव एक है, पर भाषा में कुछ परिवर्तन है। उदाहरण के रूप में देखिए
"वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं। से सबसिणेहवजिए, समयं गोयम ! मा पमायए॥"
-उत्तराध्ययन १०/२८ तुलना कीजिए
"उच्छिन्द सिनेहमत्तनो, कुमुदं सारदिकं व पाणिना।
सन्तिमग्गमेव ब्रह्म, निब्बानं सुगतेन देसितं॥" --धम्मपद २०/१३ बहुश्रुतता : एक चिन्तन
ग्यारहवें अध्ययन में बहुश्रुत की भाव-पूजा का निरूपण है। इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'बहुश्रुत-पूजा' है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने बहुश्रुत का अर्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org