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________________ * ४० मूलसूत्र : एक परिशीलन "मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ॥” – उत्तराध्ययन ९ / ४४ तुलना कीजिए - धम्मपद ५/११ "मासे मासे कुसग्गेन, बालो भुंजेथ भोजनं । न सो संखतधम्मानं, कलं अग्घति सोलसिं ॥” "अट्ठगुप्रेतस्स उपोसथस्स, कलं पि ते नानुभवंति सोलंसि । " - अंगुत्तरनिकाय, पृष्ठ २२१ " सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया ॥” तुलना कीजिए "पर्वतोपि सुवर्णस्य, समो हिमवता भवेत् । नालं एकस्य तद् वित्तं इति विद्वान् समाचरेत् ॥” "पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह । पsिyण्णं नालमेगस्स, इइ विजा तवं चरे ॥" तुलना कीजिए । " यत् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः नालमेकस्य तत् सर्वमिति, पश्यन्न मुह्यति ॥" -उत्तराध्ययन ९/४८ - दिव्यावदान, पृष्ठ २२४ " यत्पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः । सर्वं तन्नालमेकस्य, तस्माद् विद्वाञ्छमं चरेत् ॥” अनुशासनपर्व ९३/४० Jain Education International - उत्तराध्ययन ९ / ४९ - उद्योगपर्व ३९/८४ “यद् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः । एकस्यापि न पर्याप्तं, तदित्यवितृष्णां त्यजेत् ॥” -विष्णुपुराण ४/१०/१० वैदिक दृष्टि में गृहस्थाश्रम को प्रमुख माना गया है। इन्द्र ने कहा - "राजर्षि ! इस महान् आश्रम को छोड़कर तुम अन्य आश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं है । यहीं पर रहकर धर्म का पोषण करो एवं पौषध में रत रहो।" नमि राजर्षि ने कहा- "हे ब्राह्मण ! मास-मास का उपवास करके पारणा में कुशाग्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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