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________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३५ * -. -. -. -. है। ६ महाभारत की दृष्टि से भी आत्म-हत्या करने वाला कल्याणप्रद लोक में नहीं जा सकता। वाल्मीकिरामायण,८ शांकरभाष्य,८९ बृहदारण्यकोपनिषद्,९° महाभारत' आदि ग्रन्थों में आत्मघात को अत्यन्त हीन माना है। जो आत्मघात करते हैं, उनके सम्बन्ध में मनुस्मृति,९२ याज्ञवल्क्य,९३ उषन्स्मृति,९४ कूर्मपुराण,९५ अग्निपुराण,९६ पाराशरस्मृति९७ आदि ग्रन्थों में बताया है कि उन्हें जलाञ्जलि भी नहीं देनी चाहिए। जहाँ एक ओर आत्मघात को निंद्य माना है तो दूसरी ओर विशेष पापों के प्रायश्चित्त के रूप में आत्मघात का समर्थन भी किया है। जैसे मनुस्मृति में आत्मघाती, मदिरापायी ब्राह्मण, गुरुपत्नीगामी को उग्र शस्त्र, अग्नि आदि से आत्मघात करने का विधान है९८ क्योंकि वह उससे शुद्ध होता है। याज्ञवल्क्यस्मृति,९९ गौतमस्मृति,१०० वशिष्ठस्मृति,१०१ आपस्तम्भीय धर्मसूत्र,०२ महाभारत'०३ आदि में इसी तरह से शुद्धि के उपाय बताये हैं, जिसके फलस्वरूप काशीकरवट, प्रयाग में अक्षयवट से कूदकर आत्म-हत्या करने की प्रथाएँ प्रचलित हुईं। इस प्रकार मृत्युवरण को एक पवित्र और श्रेष्ठ धार्मिक आचरण माना गया। महाभारत के अनुशासनपर्व,१०४ वनपर्व,१०५ मत्स्यपुराण'०६ में स्पष्ट वर्णन है-अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश, गिरिपतन, विष-प्रयोग या अनशन द्वारा देह-त्याग करने पर ब्रह्मलोक अथवा मुक्ति प्राप्त होती है। __ प्रयाग, सरस्वती, काशी आदि तीर्थ-स्थलों में आत्मघात करने का विधान है। महाभारत में कहा है-वेद-वचन या लोक-वचन से प्रयाग में भरने का विचार नहीं त्यागना चाहिए।०७ इसी प्रकार कूर्मपुराण,१०८ पद्मपुराण,०९ स्कन्दपुराण,१° मत्स्यपुराण,११ ब्रह्मपुराण,१२ लिङ्गपुराण१३ में स्पष्ट उल्लेख है कि जो इन स्थलों पर मृत्यु को वरण करता है, भले ही वह स्वस्थ हो या अस्वस्थ, मुक्ति को अवश्य ही प्राप्त करता है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में परस्पर विरोधी वचन प्राप्त होते हैं। कहीं पर आत्मघात को निकृष्ट माना है तो कहीं पर उसे प्रोत्साहन भी दिया गया है। कहीं पर जैन परम्परा की तरह समाधिमरण का मिलता-जुलता वर्णन है। किन्तु जल-प्रवेश, अग्नि-प्रवेश, विष-भक्षण, गिरिपतन, शस्त्राघात के द्वारा मरने का वर्णन अधिक है। इस प्रकार मृत्यु के वरण में कषाय की तीव्रता रहती है। श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार के मरण को बालमरण कहा है। क्योंकि ऐसे मरण में समाधि का अभाव होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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