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३४ मूलसूत्र : एक परिशीलन
और न दुर्भावना ही होती है। वह बिना किसी कामना के स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु को इसलिए वरण करता है कि उसका शरीर अब साधना करने में सक्षम नहीं है। अतः समाधिपूर्वक सकाममरण की महिमा आगम व आगमेतर साहित्य में गायी गई है।
काममरण को पण्डितमरण भी कहते हैं । पण्डितमरण के अनेक भेद-प्रभेदों की चर्चाएँ आगम साहित्य में विस्तार से निरूपित हैं । बालमरण के भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। विस्तारभय से उन सभी की चर्चा हम यहाँ नहीं कर रहे हैं। आत्म-बलिदान और समाधिमरण में बहुत अन्तर है । आत्म- बलिदान में भावना की प्रबलता होती है। बिना भावातिरेक के आत्म- बलिदान सम्भव नहीं है । समाधिमरण में भावातिरेक नहीं होता । उसमें विवेक और वैराग्य की प्रधानता होती है।
आत्मघात और संलेखना - संथारे में भी आकाश-पाताल जितना अन्तर है। आत्मघात करने वाले के चेहरे पर तनाव होता है, उसमें एक प्रकार का पागलपन आ जाता है। आकुलता - व्याकुलता होती है। जबकि समाधिमरण करने वाले की मृत्यु आकस्मिक नहीं होती । आत्मघाती में कायरता होती है, कर्त्तव्य से पलायन की भावना होती है, पर पण्डितमरण में वह वृत्ति नहीं होती। वहाँ प्रबल समभाव होता है । पण्डितमरण के सम्बन्ध में जितना जैन मनीषियों ने चिन्तन किया है, उतना अन्य मनीषियों ने नहीं ।
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बौद्ध परम्परा में इच्छापूर्वक मृत्यु को वरण करने वाले साधकों का संयुक्तनिकाय में समर्थन भी किया है। सीठ, सप्पदास, गोधिक, भिक्षुवक्कली, कुलपुत्र और भिक्षुछन्न, " ये असाध्य रोग से ग्रस्त थे । उन्होंने आत्म-हत्याएँ कीं । तथागत बुद्ध को ज्ञात होने पर उन्होंने अपने संघ को कहा- ये भिक्षु निर्दोष हैं । इन्होंने आत्म-हत्या कर परिनिर्वाण को प्राप्त किया है । आज भी जापानी बौद्धों में हाकीरी (स्वेच्छा से शस्त्र के द्वारा आत्म-हत्या) की प्रथा प्रचलित है । बौद्ध परम्परा में शस्त्र के द्वारा उसी क्षण मृत्यु को वरण करना श्रेष्ठ माना है। जैन परम्परा ने इस प्रकार मरना अनुचित माना है, उसमें मरने की आतुरता रही हुई है।
वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में आत्म-हत्या को महापाप माना है । पाराशरस्मृति में उल्लेख है - क्लेश, भय, घमण्ड, क्रोध आदि के वशीभूत होकर जो आत्म-हत्या करता है, वह व्यक्ति ६० हजार वर्ष तक नरक में निवास करता
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