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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३३ * "तेणे जहा सन्धिमुहे गहोए, सकम्मुणा किच्चइ.पावकारी। एवं पया पेच इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि॥"
-उत्तराध्ययन ४/३
तुलना कीजिए
"चोरो यथा सन्धिमुखे गहीतो, सकम्मुना हजति पापधम्मो। एवं पजा पेच परम्हि लोके, सकम्मुना हजति पापधम्मो॥"
-थेरगाथा ७८९ मृत्यु : एक चिन्तन ___ पाँचवें अध्ययन में अकाममरण के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। भारत के तत्त्वदर्शी ऋषि, महर्षि और सन्तगण जीवन और मरण के सम्बन्ध में समय-समय पर चिन्तन करते रहे हैं। जीवन सभी को प्रिय है और मृत्यु अप्रिय है। जीवित रहने के लिए सभी प्रयास करते हैं और चाहते हैं कि हम दीर्घकाल तक जीवित रहें। उत्कट जिजीविषा प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है। पर सत्य यह है कि जीवन के साथ मृत्यु का चोली-दामन का सम्बन्ध है। न चाहने पर भी मृत्यु निश्चित है, यहाँ तक कि मृत्यु की आशंका से मानव और पशु ही नहीं अपितु स्वर्ग के अनुपम सुखों को भोगने वाले देव और इन्द्र भी काँपते हैं। संसार में जितने भी भय हैं, उन सब में मृत्यु का भय सबसे बढ़कर है। पर चिन्तकों ने कहा-तुम मृत्यु से भयभीत मत बनो ! जीवन और मरण तो खेल है। तुम खिलाड़ी बनकर कलात्मक ढंग से खेलो, चालक को मोटर चलाने की कला आनी चाहिए तो मोटर को रोकने की कला भी आनी चाहिए। जो चालक केवल चलाना ही जानता हो, रोकने की कला से अनभिज्ञ हो, वह कुशल चालक नहीं होता। जीवन और मरण दोनों ही कलाओं का पारखी ही सच्चा पारखी है। जैसे हँसते हुए जीना आवश्यक है, वैसे ही हँसते हुए मृत्यु को वरण करना भी आवश्यक है। जो हँसते हुए मरण नहीं करता है, वह अकाममरण को प्राप्त होता है। अकाममरण विवेकरहित और सकाममरण विवेकयुक्त मरण है। अकाममरण में विषय-वासना की प्रबलता होती है, कषाय की प्रधानता होती है और सकाममरण में विषय-वासना और कषाय का अभाव होता है। सकाममरण में साधक शरीर और आत्मा को पृथक्-पृथक् मानता है। शुद्ध दृष्टि से आत्मा विशुद्ध है, अनन्त आनन्दमय है। शरीर का कारण कर्म है और कर्म से ही मृत्यु और पुनर्जन्म है। इसलिए उस साधक के मन में न वासना होती है
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