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________________ * ३२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन नहीं होता। गीताकार ने भी "श्रद्धावान् लभते ज्ञानं" कहकर श्रद्धा की महत्ता प्रतिपादित की है। जब तक साधक की श्रद्धा समीचीन एवं सुस्थिर नहीं होती, तब तक साधना के पथ पर उसके कदम दृढ़ता से आगे नहीं बढ़ सकते, इसलिए श्रद्धा पर बल दिया गया है। साथ ही धर्म-श्रवण के लिए भी प्रेरणा दी गई है। धर्म-श्रवण से जीवादि तत्त्वों का सम्यक् परिज्ञान होता है और सम्यक् परिज्ञान होने से साधक पुरुषार्थ के द्वारा सिद्धि को वरण करता है। जागरूकता का सन्देश चतुर्थ अध्ययन का नाम समवायांग में 'असंख्य' है। उत्तराध्ययननियुक्ति में ‘प्रमादाप्रमाद' नाम दिया है। २ नियुक्तिकार ने अध्ययन में वर्णित विषय के आधार पर नाम दिया है तो समवायांग में जो नाम है वह प्रथम गाथा के प्रथम पद पर आधृत है। अनुयोगद्वार से भी इस बात का समर्थन होता है। व्यक्ति सोचता है-अभी तो मेरी युवावस्था है, धर्म वृद्धावस्था में करूँगा, पर उसे पता नहीं कि वृद्धावस्था आयेगी अथवा नहीं ? इसलिए भगवान ने कहा-“धर्म करने में प्रमाद न करो ! जो व्यक्ति यह सोचते हैं कि अर्थ पुरुषार्थ है, अतः अर्थ मेरा कल्याण करेगा, पर उन्हें यह पता नहीं कि अर्थ अनर्थ का कारण है। तुम जिस प्रकार के कर्मों का उपार्जन करोगे उसी प्रकार का फल प्राप्त होगा।" "कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि।"-कृत कमों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। इस प्रकार अनेक जीवनोत्थान के तथ्यों का प्रतिपादन प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है और साधक को यह प्रेरणा दी गई है कि वह प्रतिपल-प्रतिक्षण जागरूक रहकर साधना के पथ पर आगे बढ़े। चतर्थ अध्ययन की प्रथम और ततीय गाथा में जो भाव अभिव्यक्त हुए हैं, वैसे ही भाव बौद्ध ग्रन्थ-अंगुत्तरनिकाय तथा थेरगाथा में भी आये हैं। हम जिज्ञासुओं के लिए यहाँ पर उन गाथाओं को तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करने हेत दे रहे हैं। देखिए "असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं। एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कण्णू विहिंसा अजया गहिन्ति॥" -उत्तराध्ययन ४/१ तुलना कीजिए "उपनीयति जीवितं अप्पमायु, जरूपनीतस्स न सन्ति ताणा। एतं भयं मरणे पेक्खमाणो, पुञानि कयिराथ सुखावहानि॥" -अंगुत्तरनिकाय, पृष्ठ १५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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