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________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३१ * . - . - . - .। -उत्तराध्ययन २/३९ -उत्तराध्ययन ३/१७ तुलना कीजिए "सत्वा रुसितो बहं वाचं, समणाणं पथवचनानं। फरुसेन ते न पतिवजा, न हि सन्तो पटिसेनिकरोन्ति॥" -सुत्तनिपात, व. ८, १४/१८ “अणुक्कसाई, अपिच्छे, अन्नाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेजा, नाणुतप्पेज पनवं॥" -उत्तराध्ययन २/३९ तुलना कीजिए "चक्खूहि नेव लोलस्स, गामकथाय आवरये सोतं। रसे च नानुगिज्झेय्य, न च ममायेथ किंचि लोकस्मिं॥" -सुत्तनिपात, व. ८, १४/८ प्रस्तुत अध्ययन में 'खेत्तं वत्थु हिरणं' वाली जो गाथा है, वैसी गाथा सुत्तनिपात में भी उपलब्ध है। देखिए "खेत्तं वत्थं हिरण्णं च, पसवो दासपोरुसं। चत्तारि कामखन्धाणि, तत्थ से उववजई॥" तुलना कीजिए "खेत्तं वत्थु हिरखं वा, गवास्सं दासपोरिसं। थियो बन्धू पुथू कामे, यो नरो अनुगिज्झति॥" -सुत्तनिपात, व. ८, १/४ तृतीय अध्ययन में मानवता, सद्धर्म-श्रवण, श्रद्धा और संयम-साधना में पुरुषार्थ-इन चार विषयों पर चिन्तन किया गया है। मानव-जीवन अत्यन्त पुण्योदय से प्राप्त होता है। भगवान महावीर ने "दुल्लहे खलु माणुसे भवे" कहकर मानव-जीवन की दुर्लभता बताई है तो आचार्य शंकर ने भी “नरत्वं दुर्लभं लोके' कहा है। तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में कहा "बड़े भाग मानुस तन पावा। सुर-नर मुनि सब दुर्लभ गावा॥" मानव-जीवन की महत्ता का कारण यह है कि वह अपने जीवन को सद्गुणों से चमका सकता है। मानव-तन मिलना कठिन है किन्तु 'मानवता' प्राप्त करना और भी कठिन है। नर-तन तो चोर, डाकू एवं बदमाशों को भी मिलता है पर मानवता के अभाव में वह तन मानव-तन नहीं, दानव-तन है। मानवता के साथ ही निष्ठा की भी उतनी ही आवश्यकता है, क्योंकि बिना निष्ठा के ज्ञान प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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