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३६ मूलसूत्र : एक परिशीलन
इस्लाम धर्म में स्वैच्छिक मृत्यु का विधान नहीं है । उसका मानना है कि खुदा की अनुमति के बिना निश्चित समय के पूर्व किसी को मरने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार ईसाई धर्म में भी आत्म-हत्या का विरोध किया गया है । ईसाइयों का मानना है कि न तुम्हें दूसरों को मारना है और न स्वयं मरना है । ११४
संक्षेप में कहा जाय तो उत्तराध्ययन में मृत्यु के सन्निकट आने पर चारों प्रकार के आहार का त्याग कर आत्म ध्यान करते हुए जीवन और मरण की कामना से मुक्त होकर समभावपूर्वक प्राणों का विसर्जन करना 'पण्डितमरण' या ‘सकाममरण' है। जो व्यक्ति जन, परिजन, धन आदि में मूर्च्छित होकर मृत्यु को वरण करता है, उसका मरण 'बालमरण' या 'अकाममरण' है। अकाम और बालमरण को भगवान महावीर ने त्याज्य बताया है ।
निर्ग्रन्थ : एक अध्ययन
छट्टे अध्ययन का नाम 'क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय' है। 'निर्ग्रन्थ' शब्द जैन परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है । आगम साहित्य में शताधिक स्थानों पर निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग हुआ है । बौद्ध साहित्य में 'निग्गंटो नायपुत्तो' शब्द अनेकों बार व्यवहृत हुआ है । ११५ तपागच्छ पट्टावली में यह स्पष्ट निर्देश है कि गणधर सुधर्मा स्वामी से लेकर आठ पट्ट परम्परा तक निर्ग्रन्थ परम्परा के रूप में विश्रुत थी। सम्राट् अशोक के शिलालेखों में 'नियंट' शब्द का प्रयोग हुआ है । ११६ जो निर्ग्रन्थ का ही रूप है। ग्रन्थियाँ दो प्रकार की होती हैं - एक स्थूल और दूसरी सूक्ष्म। आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना 'स्थूल ग्रन्थ' कहलाता है तथा आसक्ति 'सूक्ष्म ग्रन्थ' कहलाता है । ग्रन्थ का अर्थ गाँठ है। निर्ग्रन्थ होने के लिए स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही ग्रन्थियों से मुक्त होना आवश्यक है। राग, द्वेष आदि कषायभाव 'आभ्यन्तर ग्रन्थियाँ' हैं। उन्हीं ग्रन्थियों के कारण बाह्य ग्रन्थ एकत्रित किया जाता है। श्रमण इन दोनों ही ग्रन्थियों का परित्याग कर साधना के पथ पर अग्रसर होता है । प्रस्तुत अध्ययन में इस सम्बन्ध में गहराई से अनुचिन्तन किया गया है।
दुःख का मूल आसक्ति
सातवें अध्ययन में अनासक्ति पर बल दिया है। जहाँ आसक्ति है, वहाँ दुःख है; जहाँ अनासक्ति है, वहाँ सुख है । इन्द्रियाँ क्षणिक सुख की ओर प्रेरित
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