________________
नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३६३
आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त इन दो भागों में विभक्त किया गया है। आवश्यक में ६ आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त को कालिक, उत्कालिक इन दो भेदों में परिगणित करके दोनों के अनेक प्रकार बताये गये हैं । तदनन्तर अंगप्रविष्ट श्रुत में द्वादशांगी का नामोल्लेख करके प्रत्येक अंगसूत्र में क्या-क्या विषय हैं ? उसका ब्यौरेवार वर्णन किया गया है । अन्त में, बारहवें अंग दृष्टिवाद का निरूपण करते हुए उसके पाँच प्रकार बताये गये हैं- परिक्रम, सूत्र, पूर्वगत ( १४ पूर्व वर्णन ), अनुयोग और चूलिका । साथ ही द्वादश अंगों में भाव, अभाव, हेतु, अहेतु आदि का वर्णन करके इनकी विराधना और आराधना के फल तथा इनके स्थायित्व एवं द्रव्यादि से जानने-देखने की क्षमता और इनके अध्ययन की पद्धति का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष यह है कि ज्ञान के सम्बन्ध में सभी पहलुओं से नन्दीसूत्र में सांगोपांग निरूपण किया गया है।
उपसंहार
अन्त में श्रुतज्ञान के १४ भेदों (अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत आदि) का पुनः एक गाथा द्वारा उल्लेख करके श्रुतज्ञान (शास्त्र) की पठनविधि तथा व्याख्या करने की विधि का वर्णन किया गया है । तत्पश्चात् श्रुत ( शास्त्र ) ज्ञान किसे दिया जाये ? बुद्धि के अष्टगुणों द्वारा व्यक्त किया गया है कि श्रुतज्ञानी शास्त्रज्ञान करके सन्मार्ग पर चले, सम्यक् चारित्र की आराधना करके मुक्ति प्राप्त करे। सम्यक् चारित्र की आराधना सम्यक् श्रुतज्ञान की आराधना के बिना नहीं हो सकती है। अतः स्थानांगसूत्र में ज्ञानाराधना का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट फल भी बताया गया है।
साथ ही शास्त्रज्ञान के अध्येता - श्रोता के लिए श्रवणविधि का एवं शास्त्र के अध्यापनकर्त्ता के द्वारा अध्ययन विधि का भी निरूपण किया गया है।
सूत्र मूल का ग्रन्था
नन्दीसूत की रचना गद्य और पद्य दोनों में है। इसमें एक अध्ययन है तथा ७०० अनुष्टुप् श्लोक-परिणाम जितना इसका मूल पाठ है । वर्णछन्दों में एक अनुष्टुप् श्लोक होता है, जिसमें प्रायः ३२ अक्षर होते हैं । यद्यपि इस शास्त्र में गद्य की बहुलता है, पद्य तो बहुत कम हैं। लम्बे-लम्बे गद्यसूत्र ५७ हैं, और पद्यमय श्लोक (गाथाएँ) ९७ हैं । तथापि नन्दीसूत्र के गद्य-पद्यमय जितने अक्षर हैं, यदि उन अक्षरों के अनुरूप श्लोक बनाये जाएँ तो ७०० बन सकते हैं। अतः इस सूत्र का ग्रन्थाग्र ७०० श्लोक परिणाम है। आगम-संशोधक मुनि श्री
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org