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________________ * ३६२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन बताई गई है। तदनन्तर अवधिज्ञान के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट क्षेत्र का निरूपण करके द्रव्य-क्षेत्रादि क्रम से अवधिज्ञान के स्वरूप तथा इनके अधिकारी का वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् मनःपर्यवज्ञान के अधिकारी का विश्लेषणपूर्वक निरूपण किया गया है। फिर मनःपर्यायज्ञान के मुख्य दो भेदों के स्वरूप एवं अन्तर का तथा द्रव्यादि चार प्रकार से उसकी प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है। तदनन्तर केवलज्ञान के स्वरूप का तथा भवस्थ एवं सिद्ध को होने वाले केवलज्ञान का निरूपण किया गया है। साथ ही भवस्थ केवलज्ञान के स्वरूप और प्रकार का एवं सिद्ध केवलज्ञान के दो प्रकारों का तथा अनन्तरसिद्ध एवं परम्परसिद्ध केवलज्ञान के स्वरूप तथा भेद-प्रभेदों का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया गया है। __इसके पश्चात् परोक्ष ज्ञान के आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान और श्रुत ज्ञान, ये दो भेद बताये गये हैं। ये दोनों ज्ञान साथ-साथ रहते हैं। श्रुत ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही होता है, यह निरूपण करके मति और श्रुत के दो रूप सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान की दृष्टि से बताये गये हैं-मति-ज्ञान, मति-अज्ञान तथा श्रुत-ज्ञान, श्रुत-अज्ञान सम्यक दृष्टि का श्रुत श्रुत-ज्ञान और मिथ्या दृष्टि का श्रुत श्रुत-अज्ञान है, यह भी स्पष्ट किया गया है। तदनन्तर आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान के श्रुत निश्रित और अश्रुत निश्रित, ये दो भेद बताकर अश्रुत निश्रित का स्वरूप तथा औत्पातिकी वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी, ये बुद्धि के ४ भेदों को अश्रुत निश्रित में परिगणित किया गया है। चारों का लक्षण तथा स्वरूप दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है। तदनन्तर श्रुतनिश्रित मति ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, ये चार प्रकार हैं, फिर अवग्रह के अर्थावग्रह, व्यंजनावग्रह, उनके ४ और ६ भेद तथा अवाय, ईहा और धारणा के भेद-प्रभेद बताकर पुनः द्रव्य, क्षेत्र आदि से मतिज्ञान के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात् श्रुतज्ञान के परोक्ष अक्षर, अनक्षर, संज्ञि, असंज्ञि, सम्यक्, मिथ्या, सादिक, अनादिक, समर्थवसित, अपर्यवसित, गमिक, अगमिक, अंगप्रविष्ट, अनंगप्रविष्ट ये १४ भेद बताकर प्रत्येक का सांगोपांग विश्लेषण किया गया है। साथ ही इनके भेद, प्रकार, अधिकारी तथा इनकी उत्पत्ति के प्रकार भी बताये गये हैं। गमिक अगमिक के अन्तर को स्पष्ट करते हुए गमिक में दृष्टिवाद को तथा अगमिक में कालिक को समाविष्ट किया गया। संक्षेप में इन दोनो का अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य में समावेश किया गया है। फिर अंगबाह्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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