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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३६१ * संशय हो, भ्रान्ति हो या स्पष्ट ज्ञान न हो; इसके विपरीत, मिथ्यात्वी नास्तिक, संसाराभिमुखी, भवाभिनन्दी, एकान्त भौतिकवादी में क्षयोपशम की अधिकता, बुद्धि की प्रखरता हो, तथा संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय न हो, भ्रान्ति या अस्पष्ट ज्ञान का अभाव हो, उसमें अपनी बात दूसरों को युक्तिपूर्वक समझाने, दूसरों के गले उतारने और बरगलाने की प्रवीणता हो, फिर भी उसका वह ज्ञान अध्यात्मशास्त्र की कसौटी पर मिथ्या ही सिद्ध होगा, क्योंकि उसमें आत्मलक्षी शम, सम, आध्यात्मिक श्रम (स्वयं पुरुषार्थ), संवेग, निर्वेद (वैराग्य) अनुकम्पा, आत्म-परमात्मलक्षी आस्था, सर्वभूतों में आत्मभाव की दृष्टि तथा आत्मौपम्य भाव, समत्व एवं मन, वचन, काय द्वारा की जाने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति में सर्वात्महित दृष्टि न होने से उसका वह ज्ञान सम्यक् ज्ञान की कोटि में नहीं आता। जिस सम्यक् दृष्टि व्यक्ति की दृष्टि एकान्ताग्रही, मताग्रही, मिथ्याग्रही या पूर्वाग्रही नहीं होती, उसी का ज्ञान सम्यक् ज्ञान होता है। अतः जिस ज्ञान से आत्मा स्व-पर-कल्याण कर सके, संसार-वृद्धि रोक सके, जो ज्ञान आत्मा को सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की, स्वरूपरमण की ओर ले जा सके एवं जिस ज्ञान से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास हो, ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थिरता रह सके, वह सम्यक् ज्ञान है, जिसका फल विरति, संयम, त्याग और वैराग्य है।२२८ प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान के भेद-प्रभेद तथा स्वरूप का विस्तृत वर्णन इस दृष्टि से नन्दीसूत्र में ज्ञान के सन्दर्भ में सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान का तथैव सम्यक् श्रुत और मिथ्या श्रुत का भलीभाँति निरूपण किया गया है और विवेक भी बताया गया है। इस कारण मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान को जहाँ सम्यक ज्ञान की कोटि में लिया गया है, वहीं मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान एवं विभंगज्ञान को अज्ञान की कोटि में लेकर स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार ज्ञान के मुख्य पाँच भेदों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दो रूपों में वर्गीकृत करके तथा सांव्यवहारिक और पारमार्थिक प्रत्यक्ष का अन्तर बताकर, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को इन्द्रिय प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष को नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात् सर्वप्रथम पारमार्थिक प्रत्यक्ष के अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान, ये तीन प्रकार बताये गये हैं। अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और क्षायोपशमिक ये दो भेद बताकर इनके स्वरूप का निर्देश किया गया है। तदनन्तर अवधिज्ञान के आनुगामिक आदि छह भेदों का तथा उनके स्वरूप का निरूपण किया गया है। फिर अन्तगत और मध्यगत अवधिज्ञान की विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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