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* ३५६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन आचार्य गोविन्द और आचार्य भूतदिन : अट्ठाईसवें-उनतीसवें पट्टधर
आचार्य गोविन्द और आचार्य भूतदिन्न इन दोनों आचार्यों की गुण-निष्पन्न विशेषणों से स्तुति एवं वन्दना की गई है।
आचार्य गोविन्द अनुयोग-सम्बन्धी विपुल धारणा रखने वालों में इन्द्र के समान थे तथा क्षमा, दया आदि की नित्य प्ररूपणा करने में इन्द्र के लिए भी दुर्लभ प्ररूपक थे। जैसे सर्व देवों में इन्द्र प्रधान होता है, वैसे ही तत्कालीन अनुयोगधर आचार्यों में गोविन्दाचार्य या गोपेन्द्राचार्य भी इन्द्र के समान प्रमुख थे। साथ ही उनमें सदैव क्षमाप्रधान दया थी अथवा दया का आचरण करने के लिए कितना ही कष्ट सहना पड़े, वे पीछे नहीं हटते थे।
इसके पश्चात् आचार्य भूतदिन्न हुए हैं। इनकी विशेषता यह थी कि वे तप, संयम की आराधना-साधना में भीषण कष्ट होने पर भी खेद नहीं मानते थे। साथ ही वे विद्वज्जनों द्वारा सम्मानित और सेवित थे एवं संयमविधि के विशेषज्ञ थे। ___ उनकी शारीरिक सम्पदा का वर्णन करते हुए देववाचक जी कहते हैंउनके शरीर का वर्ण तपाये हुए उत्तम स्वर्ण के समान या स्वर्णिम वर्ण वाले चम्पक पुष्प के समान अथवा खिले हुए उत्तम जाति वाले कमल के गर्भ-पराग के तुल्य पीतवर्णयुक्त था। वे भव्य प्राणियों के हृदयवल्लभ थे। जनता में दयालुता का गुण उत्पन्न करने में विशारद थे, धैर्यगुणयुक्त थे, तत्कालीन दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में युगप्रधान थे, बहुविध स्वाध्याय के परम विज्ञाता तथा सुयोग्य साधुओं को यथोचित स्वाध्याय, ध्यान और वैयावृत्य आदि शुभ कार्यों में नियुक्त करने वाले, नागेन्द्र (नाहल) कुल की परम्परा को बढ़ाने वाले एवं प्राणिमात्र को उपदेश करने में सुनिष्णात, भवभीति को नष्ट करने वाले आचार्य नागार्जुन ऋषि के शिष्य श्री भूतदिन्न आचार्य को वन्दन करता हूँ। ___ इन गुणों से स्पष्ट है कि आचार्य भूतदिन्न अहिंसा का प्रचार केवल शब्दों द्वारा ही नहीं, बल्कि भव्य प्राणियों के हृदय में इस गुण के उत्पादक तथा हिंसक को अहिंसक बनाने में दक्ष थे। उन्होंने अनेक हिंसक प्राणियों को दयालु बनाया था।२२१ आचार्य लौहित्य एवं आचार्य दूष्यगणी : तीसवें-इकत्तीसवें पट्टधर
आचार्य लौहित्य पदार्थों के नित्य-अनित्य स्वरूप को भलीभाँति जानते थे कि समस्त पदार्थ द्रव्य से नित्य और पर्याय से अनित्य होते हैं। जैनधर्म के सिद्धान्तानुसार पदार्थ न तो एकान्त नित्य है और न ही एकान्त अनित्य है, बल्कि नित्यानित्य है। आचार्यश्री अपने समय में सूत्र और अर्थ के विशेषज्ञ थे,
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