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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३५७ .
क्योंकि जीवनोत्थान, मनःसंयम, वाक् संयम और काय संयम तथा आगमों का अध्ययन, मनन, चिन्तन एवं निदिध्यासन करने से ही हो सकता है। पदार्थों को यथावस्थित रूप से प्रकट करने में वे सिद्धहस्त थे। उनके द्वारा की गई व्याख्या अविसंवादी, सत्य एवं सम्यक् होती थी।२२२
इसके पश्चात् दूष्यगणी के गुणों की प्रशंसा की गई है। दूष्यगणी शास्त्रों के अर्थ और महार्थ की खान के समान थे। सत्र की व्याख्या को अर्थ और उसकी विभाषा, वार्तिक, अनुयोग, नय और सप्तभंगी आदि के द्वारा विशिष्ट अर्थ निकालने की शक्ति महार्थ है। वे विशिष्ट मूलगुण और उत्तरगुणों से सम्पन्न मुनिवरों के सम्मुख सूत्र की व्याख्या अपूर्व शैली से करते थे। धर्मोपदेश करने में दक्ष थे। श्रुतज्ञान-विषयक प्रश्न पूछने पर उनका पूर्णतया समाधान करते थे। स्वभाव से मधुरभाषी होने से ऐसी शिक्षा देते, जिससे वह पुनः वैसी भूल अपने जीवन में नहीं होने देता। उनका शासन और प्रशिक्षण शान्त एवं व्यवस्थित रूप से चल रहा था, क्योंकि हितपूर्वक मधुर वचन कोप को उत्पन्न नहीं करता। गुरु को सुशिष्यों को शिक्षण प्रदान करने से समाधि प्राप्त हो सकती है, न कि कुशिष्यों को।
इसके अतिरिक्त आचार्य दूष्यगणी बारह प्रकार के तप, अभिग्रह आदि नियम दस प्रकार का श्रमणधर्म, दस प्रकार का सत्य, सत्रह प्रकार का संयम, सात प्रकार का विनय, क्षमा, मार्दव, ऋजुता (सरलता), शील आदि विशिष्ट गुणों से विख्यात थे। उस युग में जितने भी अनुयोगाचार्य थे, उनमें वे प्रधान थे।
वे पूर्वोक्त विविध गुणों से विभूषित थे और उनके चरणकमल शब्द, चक्र, पद्म आदि शुभ लक्षणों से सुशोभित थे तथा वे (चरणकमल) कमल की भाँति सुकुमार एवं सुन्दर थे। उनकी वाणी में माधुर्य, मन में स्वच्छता, बुद्धि में स्फुरणा शक्ति तथा प्रवचन प्रभावना में अद्वितीय, चारित्र में समुज्ज्वला, दृष्टि में समता, करकमलों में संविभागता इत्यादि गुणों से वे सम्पन्न थे। सैकड़ों प्रातिच्छिकों द्वारा जिनके चरणकमल सेवित एवं वन्दनीय थे। प्रातिच्छिक मुनिवर वे कहलाते हैं, जो विशेष श्रुताभ्यास करने के लिए अपने-अपने आचार्य की आज्ञा प्राप्त करके अन्य गण से आकर विशिष्ट वाचकों से वाचना लेते हैं या उसी गण के जिज्ञासु वाचना ग्रहण करते हैं। आसन्न उपकारी होने से देववाचक जी ने पूर्वापेक्षया अधिक भावभीनी वन्दना करते हुए कहा-भगवद् वाणी के रहस्यों को जो अपने प्रातिच्छिक मुनिवरों के समक्ष वितरित करते हैं या खोलकर रखते हैं, ऐसे अनुयोगाचार्य दूष्यगणी के चरणों में शतशः वन्दन ! २२३
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