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* ३५० * मूलसूत्र : एक परिशीलन
विशेष ज्ञातव्य (१) आर्यरक्षित के पूर्व श्रमण एक पात्र रखते थे, परन्तु युग-परिवर्तन के
साथ आर्यरक्षित ने चातुर्मास में दो पात्र रखने की नई परम्परा प्रचलित की।२०४ दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य यह हुआ कि उनसे पहले आगमों का अध्ययन नयों और चारों अनुयोगों के साथ होता था, किन्तु आगम अध्ययन की यह व्यवस्था बहुत ही जटिल और कठिन थी। आचार्यश्री ने उस पर गहन चिन्तन किया और आगमाध्ययन व्यवस्था को सरल बनाने के लिए आगमों को द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग
और धर्मकथानुयोग इन चार अनुयोगों में विभक्त किये।०५ इस विभक्तिकरण के कारण जिन पापों से जो अनुयोग स्पष्टतः प्रतिभासित होता था, उस प्रधान अनुयोग को रखकर शेष अन्य गौण अर्थों का प्रचलन बन्द कर दिया। जैसे-ग्यारह अंगों, महाकल्पसूत्र और छेदसूत्रों का चरणकरणानुयोग में, ऋषिभाषितों, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा आदि का धर्मकथानुयोग में, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि का गणितानुयोग में और दृष्टिवाद का द्रव्यानुयोग में समावेश किया गया।
इसके पश्चात् नयावतार अनावश्यक हो गया।२०६ (२) इतिहासकारों के मतानुसार यह आगम-वाचना वीर निर्वाण सं. ५९२
के लगभग हुई। इस आगम-वाचना में आर्य नन्दिल, गणाचार्य वज्रसेन तथा युगप्रधानाचार्य आर्यरक्षित आदि उपस्थित थे। आगम-वाचना की दिशा में यह एक शैक्षणिक क्रान्ति थी। आर्यरक्षित के तेजस्वी व्यक्तित्त्व के अत्यधिक प्रभाव के कारण उनके द्वारा की गई यह अनुयोग-व्यवस्था
श्रीसंघ ने निर्विरोध स्वीकार की।२०७ (३) आर्यरक्षित के अनेक शिष्य थे, उनमें से तीन शिष्य-दुर्बलिकापुष्यमित्र,
घृतपुष्यमित्र एवं वस्त्रपुष्यमित्र, विशिष्ट लब्धि-सम्पन्न थे।२०८ (४) आर्यरक्षित का विहार-क्षेत्र अवन्ति, मथुरा और दशपुर के आसपास
था। उनके जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाएँ इन नगरों से सम्बन्धित हैं। उन्होंने १३ वर्ष तक युगप्रधान आचार्यपद पर रहकर जैनधर्म की
महती प्रभावना की। (५) आपकी आयु के सम्बन्ध में इतिहासविज्ञों में दो मतभेद हैं। कितने ही
विज्ञ उनकी आयु ७५ वर्ष की और कितने ही ९५ वर्ष की मानते हैं। ९५
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