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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३५१ वर्ष की आयु मानने वालों के अनुसार आर्यरक्षित का जन्म वीर निर्वाण सं. ५०२ (विक्रम सं. ३२) में सिद्ध होता है। ७५ वर्ष की आयु की मान्यता वालों के अनुसार उनका जन्म वीर निर्वाण सं. ५२२ में तथा वीर निर्वाण सं. ५४४ में २२ वर्ष की वय में दीक्षा-ग्रहण और वीर निर्वाण सं. ५८४ में युगप्रधान आचार्य-पदारूढ़ होना तथा ७५ वर्ष की सर्व आयु पूर्ण कर वीर निर्वाण सं. ५९७ में स्वर्गवासी होना सिद्ध होता है। जो भी हो, आर्यरक्षित स्थितिपालक नहीं थे। वे स्वस्थ परम्परा के पोषक थे। क्रान्तिकारी सिद्धान्त-सम्मत विचारों के वे प्रबल समर्थक भी थे। उन्होंने कतिपय पुरातन परम्पराओं को नया मोड़ दिया और जनमानस की आस्थाओं को टिकाने का पुरुषार्थ किया। आर्य नन्दिल क्षपण, नागहस्ती, रेवतीनक्षत्र एवं आर्य सिंह : इक्कीसवें से चौबीसवें पट्टधर तक आर्य नन्दिल (आर्य आनन्दिल) क्षपण सदैव ज्ञान, दर्शन, तप, विनय और चारित्र के पालन में प्रतिक्षण प्रमादरहित होकर सदा उद्यत (तत्पर) रहते थे। राग-द्वेष अतीव मन्द होने से वे प्रसन्नचित्त समाहित मन्न रहते थे। जो मुनि निश्चयपूर्वक व्यवहार धर्म में उद्यमशील होते हैं, उन्हीं के मन में सदैव प्रसन्नता रहती है। अर्थार्थी को तीन लोक में सुदुर्लभ चिन्तामणि रत्न मिलने से अतीव प्रसन्न हो जाता है, वैसे ही संयम-नियमरूप चारित्र रत्न मिलने पर कौन प्रसन्नता से ओतप्रोत नहीं होता? नन्दिल श्रमण ऐसे क्षपण और गुणों से सम्पन्न थे। पिछली आगम-वाचना आर्यरक्षित के साथ आर्य क्षपण भी आगम-वाचना उपस्थित थे।२०९ आर्य नागहस्ती उस युग के अनुयोगधरों में धुरन्धर विद्वान् थे। उनका यशस्वी वाचक वंश मूर्तिमान यशो वंश की भाँति वृद्धि को प्राप्त हो, ऐसा कहकर देववाचक जी ने अपनी मनोमंगल भावना प्रकट की है। सम्भव है, वाचक वंश का उद्भव आर्य नागहस्ती से ही हुआ हो। वाचक वह होता है, जो जिज्ञासुओं और शिष्यों को शास्त्राध्ययन कराते हैं। वाचक वैसे उपाध्याय पद का भी प्रतीक है। आर्य नागहस्ती आचार्य (आनन्दिल) नन्दिल क्षपण के पट्टधर शिष्य थे ये व्याकरण (संस्कृत प्राकृत व्याकरण) तथा प्रश्नव्याकरण आदि विषयों और भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे तथा पिण्डविशुद्धि, भावना, समिति, भिक्षु-प्रतिमाएँ, इन्द्रिय-निरोध, प्रतिलेखन, गुप्ति और अभिग्रह, इन सबके समूह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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