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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३४९
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दुःखी हो रहा है। तू भी मोह को छोड़कर अपना जीवन संयम साधना में लगा । प्रबुद्ध होकर फल्गुरक्षित ने भी आर्यरक्षित के पास दीक्षा ग्रहण कर ली । किन्तु फल्गुरक्षित बार-बार आर्यरक्षित को माता-पिता के दर्शन देने की याद दिलाता । किन्तु आचार्य वज्र स्वामी से उन्होंने अध्ययन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा“अभी तो सरसों के एक दाने जितना पढ़ा है, मेरुगिरि जितना पढ़ना बाकी है। जब नौ पूर्वो का अध्ययन पूर्ण कर लिया और दशवें पूर्व का आधा अध्ययन पूर्ण हो गया, तब आर्यरक्षित ने आर्य वज्र स्वामी से माता-पिता को दर्शन देने हेतु दशपुर जाने की आज्ञा माँगी । आर्य वज्र स्वामी गम्भीर हो गये और ज्ञान-बल से अपना आयुष्य कम है, पुनः मिलन नहीं हो सकेगा । दशवें पूर्व का ज्ञान मेरे साथ ही विच्छिन्न हो जायेगा ।" अतः अनिच्छा से उन्होंने आज्ञा प्रदान की, अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी। आर्यरक्षित और फल्गुरक्षित दोनों वज्र स्वामी को वन्दन कर पहले दीक्षा-प्रदाता आचार्य तोसलिपुत्र के पास पाटलिपुत्र पहुँचे । आचार्यश्री ने आर्यरक्षित को योग्य समझकर आचार्यपद प्रदान किया । आर्यरक्षित आचार्य बनकर दशपुर पहुँचे । २०३
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जब फल्गुरक्षित मुनि के साथ आचार्य आर्यरक्षित ने बिना किसी आडम्बर के घर में प्रवेश किया। इस पर पिता सोमदेव ने कहा- "यह अच्छा नहीं किया। एक नये उत्सव के साथ मैं नगर में प्रवेश कराना चाहता था; दूसरे, तुम्हें श्रमण-वेश का त्यागकर गृहस्थाश्रम का वेश पहनकर विवाहादि करना चाहिए था। तो हम दोनों की आत्मा को सन्तोष होगा ।' आचार्य आर्यरक्षित ने कहा"इन सांसारिक सम्बन्धों से लाख गुना बेहतर है धार्मिक सम्बन्ध । उसी से उभय जीवन सफल हो सकेंगे। यदि आपका हार्दिक प्रेम हम पर है तो श्रमण बनकर हमारे साथ गुरुचरणों में चलिए।" पिता सोमदेव ने दीक्षा ग्रहण करना स्वीकार किया । परन्तु उन्होंने कहा- "मैं छत्र, जनेऊ, कोपीन और पादुका रखूँगा।” आर्यरक्षित ने यह सोचकर छूट दे दी कि कुछ दिनों बाद ये वस्तुएँ अपने आप छूट जायेंगी। ये चारों चीजें सोमदेव मुनि के शरीर पर रहीं, तब तक बालकों आदि ने अन्य साधुओं को तो वन्दन किया, किन्तु सोमदेव मुनि को नहीं करते थे, यह कहकर कि यह जैन- श्रमण के वेश में नहीं हैं। सोमदेव मुनि ने इसे अपना अपमान समझा और स्वयं उन्होंने अपने हाथों ये चारों चीजें क्रमशः उतारकर रख दीं। स्वयं उन चीजों का त्याग करके जब जैन श्रमणोचित वेश में हो गये, तब सभी जैन श्रावक वर्ग उन्हें वन्दन करने लगा। अब सोमदेव मुनि संयममार्ग में तथा मुनि-साधना में स्थिर हो गये ।
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